:::: बच्चों की मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत कर सकते हैं स्कूली
:::: डब्ल्यूएचओ ने स्कूली बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत रखने के लिए बनाया हेल्थ मैनुअल
रांची(मनोज सिंह). सुप्रीम कोर्ट ने स्कूल, कॉलेज और शैक्षणिक संस्थानों में बच्चों की आत्महत्या को गंभीरता से लिया है. 25 जुलाई 2025 को ही सुप्रीम कोर्ट ने इससे संबंधित आदेश जारी किया है. देश के हर कोने के साथ-साथ झारखंड में भी स्कूली विद्यार्थियों की आत्महत्या करने के कई मामले आते रहे हैं. हाल के वर्षों में कई तकनीकी संस्थानों के विद्यार्थियों ने भी आत्महत्या की है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के एक अध्ययन के अनुसार पांच में से एक बच्चा मानसिक रूप से कमजोर होता है. आधे से अधिक मानसिक रोगों की शुरुआत बचपन या यौवनावस्था में होती है. स्कूलों के पास बच्चों की मानसिक स्थिति को समझने का सबसे अच्छा मौका होता है. स्कूल बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत कर सकता है. बच्चों की भावनाओं को समझ सकता है. बच्चों के सामाजिक और नैतिक विकास को समझ सकता है. बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत कर ही एक अच्छी पीढ़ी तैयार की जा सकती है. स्कूल बच्चों के बौद्धिक विकास में भी भागीदारी निभा सकते हैं.15 हजार घंटे स्कूल में गुजारते हैं बच्चे
डब्ल्यूएचओ का मानना है कि विद्यार्थी अपना अधिक समय स्कूल में ही गुजारते हैं. नर्सरी से स्कूली शिक्षा पूरा करने तक विद्यार्थी औसतन 15 हजार घंटे स्कूल में ही गुजारते हैं. इस कारण बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को मजबूत रखने के लिए स्कूली स्तर पर ही प्रयास जरूरी है. इससे बच्चों में विकसित होने वाले नकारात्मक सोच को रोका जा सकता है. बाल अपराध को कम किया जा सकता है. स्कूल बच्चों को अच्छे व्यवहार (इसमें हेल्दी डाइट, फिजिकल एक्टिविटी) की जानकारी दे सकता है. इससे बच्चों का भविष्य बेहतर गुणवत्ता के साथ संवारा जा सकता है. स्कूल के बच्चों का शिक्षक, स्कूल स्टाफ और अपने साथियों के साथ लगाव भी मानसिक रूप से उन्हें मजबूत कर सकता है. इसे ध्यान में रखते हुए डब्ल्यूएचओ ने स्कूली बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत रखने के लिए हेल्थ मैनुअल बनाया है. अलग-अलग एज ग्रुप में होते हैं अलग-अलग बदलावउम्र सीमा छह से आठ वर्ष
बदलाव : इस उम्र के बच्चों में एक सामान्य डर होता है. परिवार की समस्या, फेल होने का डर और रिजेक्शन जैसी समस्याएं होती हैं. इसका कारण पड़ोसी और एक ही लिंग वाले साथी भी हो सकते हैं. छोटे बच्चों पर अधिकार दिखाने और बड़ों को फॉलो करने की प्रवृत्ति होती है. दूसरों की चीजें अच्छी लगती हैं. अपने आप को गतिविधि, बनावट से दिखाने की भावना विकसित होती है. कम गुस्सा और ज्यादा निराशा की भावना होती है. अधिक आत्म-जागरूक बनने की कोशिश करते हैं. बड़ों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बकवास करना इस उम्र के बच्चों की एक आम प्रवृत्ति है. इसी उम्र में अंधेरे या राक्षसों से डर लग सकता है.
क्या हो सकते हैं उपाय
-गैर-प्रतिस्पर्धी खेलों को प्रोत्साहित करें-व्यक्तिगत लक्ष्य निर्धारित करने में मदद करें
-सकारात्मकता पर भरपूर ध्यान दें-बच्चों को नियम बनाने में शामिल करें-आत्म-नियंत्रण और अच्छे निर्णय लेने के बारे में बातें करें-धैर्य रखने, बांटने और दूसरों के अधिकारों का सम्मान क्यों जरूरी है, यह बतायें
नौ से 12 साल
बदलाव : इस उम्र में जीतने, नेतृत्व करने या प्रथम होने की भावना प्रबल होती है. उदाहरण के तौर पर बॉस बनना, खेल हारने पर दुखी होना जैसी प्रतिक्रिया होती है. अक्सर अपने माता-पिता (शिक्षक, क्लब लीडर, कोच) के अलावा किसी अन्य वयस्क से जुड़ाव होता है. इस उम्र में उनके जीवन में एक नया हीरो आता है, जिसे खुश करने, ध्यान आकर्षित करने और पाने की कोशिश करते हैं. साथियों और परिवार दोनों को प्रभावित करने की भावना विकसित होती है. भावनाएं आसानी से आहत हो जाती हैं. मूड में उतार-चढ़ाव सामान्य होता है. नकारात्मक प्रतिक्रिया के प्रति संवेदनशील होते हैं. विफलता से निपटना कठिन होता है.क्या हो सकते हैं उपाय :
-प्रत्येक को फीडबैक से सीखने के लिए प्रोत्साहित करें. पूछें : अगली बार आप इसे अलग तरीके से कैसे कर सकते हैं.-हमेशा उनकी भावनाओं के प्रति सचेत रहें
-सफलताओं के लिए सकारात्मक प्रतिक्रिया दें-ऐसी गतिविधियां पेश करें, जिनसे बच्चों को अपने अस्तित्व और काम पर गर्व महसूस हो-उच्च ऊर्जा और शांत गतिविधियों के बीच संतुलन बनायें
13 से 16 साल
बदलाव : इस उम्र के बच्चों के जीवन का एक अत्यंत संवेदनशील और निर्णायक चरण होता है. यह उम्र किशोरावस्था कहलाती है, जिसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक स्तर पर तेजी से बदलाव होते हैं. आत्म-चेतना बढ़ जाती है. कभी खुश, कभी उदास. खुद को पहचानने और समाज में अपनी जगह तलाशने की कोशिश. अकेले रहना पसंद करना, कभी-कभी ज्यादा भी हो जाना. अभिभावकों से तर्क करना या उनकी बातों को चुनौती देना. यह बदलाव अक्सर अभिभावकों और शिक्षकों के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, लेकिन अगर सही तरीके से समझा जाये, तो यह बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण का मजबूत आधार बन सकता है.
क्या हो सकते हैं उपायसहानुभूति से सुनें, उपदेश न दें.
भावनात्मक समर्थन दें, खासकर तब जब वे बात नहीं करना चाहते.हेल्दी लाइफस्टाइल सिखायें, व्यायाम, नींद, पोषण.
सम्मान दें, उन्हें इंसान की तरह ट्रीट करें, बच्चा समझकर नहीं.सीमाएं तय करें, लेकिन तानाशाही नहीं चलायें.
सबसे महत्वपूर्ण, अपने उदाहरण से सिखायें, केवल शब्दों से नहीं.साथ मिलकर बनेगा संबल
अगर स्कूल, शिक्षक और माता-पिता एकजुट होकर काम करें, तो बच्चे न सिर्फ अच्छे विद्यार्थी, बल्कि मानसिक रूप से मजबूत और भावनात्मक रूप से संतुलित इंसान बन सकते हैं. स्कूल अगर इस दौर में बच्चों को सुनना, समझना और संभालना सीखा दे, तो वे जीवनभर मजबूत रहेंगे. प्रस्तुत हैं तीनों की जिम्मेदारियां और उपाय.स्कूल की भूमिका
स्कूल का माहौल डर रहित और समझदारी भरा हो.स्कूल काउंसलर की व्यवस्था करें.
बच्चों की नियमित काउंसेलिंग, न कि सिर्फ समस्या होने पर.पाठ्यक्रम में ‘जीवन कौशल’, आत्म-नियंत्रण और सहानुभूति की शिक्षा.
रोज पांच मिनट का ध्यान या शांत समय.मंच दें. नाटक, संगीत, चित्रकला, कविता आदि से बच्चे खुद को व्यक्त कर सकें.
मानसिक स्वास्थ्य पर संवाद, सिर्फ अंकों तक सीमित न रहे पीटीएम.शिक्षकों की भूमिका
सहानुभूति से सुनें, उपदेश न दें.बच्चों की बातें ध्यान से सुनना ही उन्हें सशक्त बनाता है.
अचानक चुप्पी, गुस्सा या अलगाव, ये बदलाव अनदेखा न करें.हर छात्र को सुरक्षित महसूस हो कि वह अपनी बात कह सके.
खुद का व्यवहार शांत, सम्मानजनक और अनुशासित रखें.दिन की शुरुआत बच्चों से “कैसा महसूस कर रहे हो?” पूछकर करें.
छात्र-छात्राओं को एक-दूसरे की मदद करना सिखायें.हर बच्चे को “महत्वपूर्ण” महसूस करायें.
छोटे-छोटे प्रोत्साहन, प्रशंसा और भरोसे के शब्द बहुत असर डालते हैं.अभिभावकों की भूमिकाडांटने से पहले बच्चे से उसका पक्ष जरूर पूछें.
भावनाओं को स्वीकारें, नकारें नहीं.इतना भी क्या सोचते हो? जैसे वाक्य भावनाओं को दबा देते हैं.
समय निकालें, साथ बैठें, मोबाइल से ज्यादा ‘मनोबल’ देंपढ़ाई से ज्यादा मानसिक संतुलन पर ध्यान दें.नंबर जरूरी है, पर मानसिक सुख-शांति उससे कहीं ज्यादा.
बच्चों की तुलना न करें, तुलना आत्मसम्मान तोड़ती है, आत्मविश्वास नहीं बढ़ाती.अपने व्यवहार से सीख दें, आप खुद कैसे तनाव झेलते हैं, बच्चा वही सीखेगा.
काउंसेलिंग कोई कमजोरी नहीं, एक समझदारी है.झारखंड के 5.6 फीसदी बच्चों ने की आत्महत्या
एनसीआरबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक देश में प्रति एक लाख में 7.6 फीसदी लोगों ने आत्महत्या की थी, जिनकी उम्र 18 साल से नीचे थी. इसमें करीब 4600 युवक और 5700 युवतियां थीं. झारखंड में भी प्रति एक लाख में करीब 5.6 फीसदी आबादी ने आत्महत्या की थी. इसके पीछे मानसिक तनाव प्रमुख कारण है. धनबाद जिले में पिछले पांच माह में 100 से अधिक लोगों ने आत्महत्या की थी, जिनमें युवाओं की संख्या भी शामिल है मानसिक तनाव का परिणाम केवल आत्महत्या ही नहीं है. इसके कारण विद्यार्थी नशे के आदी भी हो रहे हैं. मनोचिकित्सा संस्थानों में ऐसे मरीजों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है. रिनपास के मनोचिकित्सक डॉ सिद्धार्थ सिन्हा बताते हैं कि बड़ी संख्या में मनोविकार के विद्यार्थी अब इलाज के लिए संस्थान आ रहे हैं. इसमें कम उम्र में नशा और सोशल मीडिया की लत भी अधिक देखी जा रही है. इसकी शुरुआती काउंसलिंग स्कूल से ही हो सकती है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है