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seraikela kharsawan news: विश्व मंच पर छऊ को दिलायी पहचान, कलाकार रह गये गुमनाम

सरायकेला: आज रसोइया और सब्जी विक्रेता बनने को विवश हैं छऊ कलाकार

धीरज सिंह/ प्रताप मिश्रा, सरायकेला

विश्व प्रसिद्ध सरायकेला छऊ नृत्य को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाले कई कलाकार आज रोजगार के अभाव में दूसरे व्यवसायों से जुड़कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं. सरकार और प्रशासन की उपेक्षा ने इन कलाकारों को हाशिये पर ला खड़ा किया है. फिर भी वे अपनी कला को संरक्षित रखने में जुटे हुए हैं. आइए जानते हैं कुछ ऐसे कलाकारों की कहानी, जिनकी जिंदगी आज भी संघर्ष का पर्याय बनी हुई है.

सब्जी बेचकर परिवार चला रहे छऊ कलाकार संजय कर्मकार

संजय कुमार कर्मकार (41) सरायकेला छऊ के जाने-माने कलाकार हैं. महज 10 वर्ष की उम्र से ही उन्होंने छऊ नृत्य करना शुरू कर दिया था. वे पिछले 31 वर्षों से लगातार इस कला का प्रदर्शन कर रहे हैं. संजय ने देश के साथ-साथ विदेशों में भी छऊ की प्रस्तुति दी है. वे छह से अधिक देशों में भारत की सांस्कृतिक विरासत को प्रस्तुत कर चुके हैं. लेकिन आज वही कलाकार सरायकेला के दैनिक बाजार में सब्जी बेच कर अपने परिवार का पेट पालने को विवश है. वे कहते हैं 31 साल इस कला को देने के बाद भी सरकार की ओर से आज तक किसी तरह की कोई मदद नहीं मिली है.

स्कॉलरशिप देने के बाद भूली सरकार, बच्चों को प्रशिक्षण दे रहे गणेश परिच्छा

छऊ कलाकार गणेश परिच्छा भी ऑस्ट्रेलिया व रूस से जैसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं. वर्ष 2004 में भारत सरकार की ओर से उन्हें सीनियर स्कॉलरशिप दी गयी थी. लेकिन इसके बाद कोई सुविधा नहीं दी गयी. वर्तमान में वे छऊ नृत्य की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए बच्चों को प्रशिक्षण दे रहे हैं. फिलहाल छह विद्यार्थी उनसे नियमित अभ्यास कर रहे हैं.

विश्व मंच पर कला को दिलायी पहचान, आज रसोइया का काम कर रहे कामेश्वर

छऊ कलाकार कामेश्वर भोल, जिन्होंने अमेरिका सहित सात से अधिक देशों में नृत्य कर सरायकेला की पहचान को वैश्विक स्तर तक पहुंचाया, आज रसोइया का काम कर रहे हैं. वे कभी पद्मश्री शुधेंद्र नारायण सिंहदेव की महिला साथी के रूप में मंच साझा करते थे. आज यह कलाकार अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में संघर्ष कर रहा है. वे कहते हैं- “सरकार को छऊ महोत्सव में खर्च करने के लिए लाखों रुपए मिलते हैं, लेकिन उन्हीं कलाकारों की सुध नहीं ली जाती, जिन्होंने इस कला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलायी”.

पुश्तैनी कला को सहेजने में जुटे मुन्ना, सब्जी बेच परिवार चला रहे

मुन्ना बताते हैं कि उनके दादा आरत रंजन महाराणा ने सरायकेला के कंसारीसाही आखड़ा की स्थापना की थी. बाद में इस कला को गोराचांद महाराणा और पाणु उस्ताद ने आगे बढ़ाया. अब तीसरी पीढ़ी में मुन्ना महाराणा इस परंपरा को थामे हुए हैं. मुन्ना बताते हैं “मेरे पिता को सरायकेला राजघराने से ””उस्ताद”” की उपाधि मिली थी. उन्होंने भी छऊ को विदेशों तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन न तो उनके जीवनकाल में कोई सरकारी सम्मान मिला, न ही मृत्यु के बाद उन्हें याद किया गया. आज मुन्ना डेली सब्जी मार्केट में आलू-प्याज बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं, लेकिन इसके साथ छऊ की परंपरा को जीवित रखने के लिए प्रयासरत हैं.

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