UP Police Wrong Arrest Case: कानपुर पुलिस एक बार फिर अपनी लापरवाह कार्यशैली को लेकर कटघरे में है. बिजली चोरी के एक 19 साल पुराने मामले में पुलिस ने नाम समान होने के कारण एक निर्दोष व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया और कोर्ट में पेश कर दिया. इस बड़ी चूक के सामने आने पर कोर्ट ने बजरिया थाने के प्रभारी से सख्त लहजे में तीन दिन के अंदर जवाब मांगा है.
यह मामला न सिर्फ पुलिस की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है, बल्कि यह भी बताता है कि कैसे छोटी सी असावधानी किसी निर्दोष की जिंदगी में बड़ा संकट ला सकती है.
केस्को बनाम मनोज कुमार: 19 साल से लंबित है केस
यह मामला ‘केस्को बनाम मनोज कुमार’ शीर्षक से वर्ष 2006 से विशेष ईसी एक्ट की अदालत में लंबित है. आरोप है कि सीसामऊ बाजार निवासी एक व्यक्ति मनोज कुमार ने बिजली चोरी की थी. अदालत ने आरोपी के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी किया था.
लेकिन पुलिस ने गलती से गांधी नगर निवासी मनोज कुमार पोरवाल को असली आरोपी समझकर गिरफ्तार कर लिया और कोर्ट में पेश कर दिया.
कोर्ट में हुए खुलासे से सब स्तब्ध
जब निर्दोष मनोज पोरवाल को कोर्ट में लाया गया, तो उसने तुरंत आधार कार्ड, बैंक पासबुक समेत अन्य दस्तावेज दिखाकर खुद को अलग व्यक्ति बताया. दस्तावेजों से साफ हुआ कि वह सीसामऊ बाजार का नहीं, बल्कि गांधी नगर का निवासी है और बिजली चोरी के केस से उसका कोई वास्ता नहीं है.
कोर्ट ने दस्तावेजों को मान्यता देते हुए उसे ₹20,000 के निजी मुचलके पर रिहा कर दिया.
यह पूरा घटनाक्रम कोर्ट में मौजूद सभी लोगों के लिए चौंकाने वाला था.
कोर्ट ने पुलिस पर जताई नाराज़गी
कोर्ट ने इस चूक को बेहद गंभीर माना और बजरिया थाने के इंस्पेक्टर से पूछा कि आखिर बिना पर्याप्त जांच किए, नाम समानता के आधार पर किसी को कैसे गिरफ्तार कर लिया गया?
कोर्ट ने कहा कि यह लापरवाही न सिर्फ आरोपी के मौलिक अधिकारों का हनन है, बल्कि पुलिस की गैर-जिम्मेदारी का भी उदाहरण है. अब कोर्ट ने असली आरोपी की शीघ्र गिरफ्तारी और अदालत में पेशी का आदेश भी दिया है.
पुलिस की सफाई—नाम बदलने का दावा
मामले में सीसामऊ के एसीपी मंजय सिंह ने सफाई देते हुए कहा कि गिरफ्तार किया गया व्यक्ति वही है, जो 2006 में अभियुक्त था. तब उसका नाम सिर्फ ‘मनोज कुमार’ था, अब वह ‘मनोज पोरवाल’ के नाम से रह रहा है.
एसीपी ने यह भी कहा कि हो सकता है आरोपी ने नाम बदल कर खुद को बचाने की कोशिश की हो. साथ ही यह भी जोड़ा कि अभी तक कोर्ट का कोई आधिकारिक नोटिस थाने या एसीपी ऑफिस को प्राप्त नहीं हुआ है.
नाम एक, पर जिम्मेदार कौन?
यह पूरा मामला पुलिस की जांच प्रक्रिया और गंभीर मामलों में भी सतर्कता न बरतने की पोल खोलता है. यदि कोर्ट में सही दस्तावेज न होते, तो एक निर्दोष व्यक्ति को जेल की सजा भी भुगतनी पड़ सकती थी.
यह घटना इस ओर इशारा करती है कि न्याय व्यवस्था में पुलिस की जिम्मेदारी कितनी अहम होती है और छोटी सी लापरवाही किस कदर भारी पड़ सकती है.
कानपुर पुलिस की एक और गलती ने आम जनता में सुरक्षा और न्याय को लेकर चिंता बढ़ा दी है. कोर्ट की सख्ती और निर्दोष की तत्परता से मामला संभल गया, लेकिन सवाल अब भी खड़े हैं—क्या हमारी पुलिसिंग प्रणाली इतनी असंवेदनशील हो गई है कि नाम देखकर किसी को भी आरोपी बना दिया जाए?