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‘सरकारी फोन सिर्फ अफसरों के लिए’, बोले थे योगी — फिर क्यों बजती है घंटी पीआरओ के पास?

LUCKNOW NEWS: मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि सरकारी फोन केवल अफसर खुद इस्तेमाल करें, इन्हें पीआरओ को न सौंपा जाए. बावजूद इसके कई अधिकारी नियमों की अनदेखी कर रहे हैं. इससे जनता की शिकायतें सीधे अधिकारियों तक नहीं पहुंच पा रहीं, जिससे संवादहीनता बढ़ रही है.

LUCKNOW NEWS: उत्तर प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं. उन्होंने स्पष्ट निर्देश दिए थे कि प्रदेश के किसी भी जिले या शहर का कोई भी बड़ा अधिकारी चाहे वह जिलाधिकारी (डीएम) हो, वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (एसएसपी) हो या कोई अन्य वरिष्ठ अधिकारी अपने सरकारी मोबाइल फोन का प्रयोग केवल स्वयं करें. इन सरकारी फोनों को पीआरओ (जनसंपर्क अधिकारी) या किसी अन्य अधीनस्थ कर्मचारी को सौंपना सख्त मना है.

मुख्यमंत्री के आदेश की अनदेखी, अधिकारियों की मनमानी

मुख्यमंत्री के इस स्पष्ट निर्देश के बावजूद, कई अधिकारी अब भी पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं. सूत्रों के अनुसार, कई जिलों में तैनात वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा न केवल सरकारी फोन पीआरओ के हवाले कर दिए गए हैं, बल्कि पीआरओ ही अब पत्रकारों, जनप्रतिनिधियों और आम नागरिकों से संवाद स्थापित कर रहे हैं. इससे न केवल जनसंपर्क की प्रक्रिया बाधित हो रही है, बल्कि अधिकारियों की जवाबदेही भी सवालों के घेरे में आ गई है.

पूर्व में भी हुई थी सख्ती, 28 अप्रैल 2017 की घटना

यह पहली बार नहीं है जब मुख्यमंत्री ने अधिकारियों की कार्यप्रणाली पर सख्ती दिखाई हो. 28 अप्रैल 2017 को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए एक अनोखा कदम उठाया था. उन्होंने सुबह 9 बजे से शाम 6 बजे के बीच अधिकारियों के कार्यालय के लैंडलाइन नंबरों पर अचानक कॉल कर उनकी उपस्थिति की जांच की थी. इस दौरान कई अधिकारी अपने कार्यालय में अनुपस्थित पाए गए थे, जिनसे स्पष्टीकरण मांगा गया था. मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया था कि यदि अधिकारी अपने कार्यालय में उपस्थित नहीं पाए जाते हैं और उचित कारण नहीं बताते हैं, तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी.

जनता और मीडिया के लिए संवादहीनता की स्थिति

सरकारी तंत्र का एक अहम हिस्सा होता है पारदर्शिता और संवाद. जब जिले के मुखिया या बड़े अफसर तक आम आदमी या पत्रकार की पहुंच ही न हो, तो प्रशासनिक जवाबदेही का पूरा तंत्र सवालों के घेरे में आ जाता है. ऐसे में यदि अधिकारी खुद को इन सरकारी फोन से दूर रखेंगे और उन्हें अपने पीआरओ या अधीनस्थ स्टाफ को सौंप देंगे, तो संवादहीनता की स्थिति पैदा हो जाएगी. इससे न केवल प्रशासन की कार्यप्रणाली पर सवाल उठेंगे, बल्कि सरकार की साख भी दांव पर लगेगी.

क्या होगी कार्रवाई?

अब सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस मनमानी पर कोई कठोर कदम उठाएंगे? या फिर यह मामला भी अन्य मुद्दों की तरह समय के साथ ठंडे बस्ते में चला जाएगा? योगी सरकार की छवि एक मजबूत, अनुशासित और ईमानदार प्रशासन देने की रही है. ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि मुख्यमंत्री खुद इस मामले को संज्ञान में लेंगे और दोषी अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई सुनिश्चित करेंगे.

यह मामला केवल एक आदेश की अवहेलना का नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक सिद्धांत की अनदेखी का है. यदि सरकारी फोन जैसे छोटे-से संसाधन का भी दुरुपयोग हो रहा है, तो इससे यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि बाकी मामलों में कितनी लापरवाही बरती जा रही होगी. मुख्यमंत्री की मंशा साफ है शासन को जवाबदेह और प्रभावी बनाना. लेकिन जब तक उनके आदेशों का पालन नीचे तक नहीं होगा, तब तक यह मंशा अधूरी ही रहेगी.

अंततः यही सवाल उठता है जब आदेश ऊपर से आ चुका है, तो नीचे पालन में देरी क्यों? क्या अधिकारियों की मनमानी पर लगाम लगाने के लिए अब कोई उदाहरण पेश किया जाएगा? जनता और मीडिया की निगाहें अब योगी सरकार की अगली कार्रवाई पर टिकी हैं.

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