katoriya vidhaanasabha: कटोरिया — नाम छोटा है, पर इसकी विरासत गहरी और विद्रोही है. बांका लोकसभा क्षेत्र का यह आदिवासी इलाका कभी ब्रिटिश राज की नींदें हराम करता था और आज लोकतंत्र की जमीन पर नया सपना बो रहा है. यह सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र नहीं, बल्कि संघर्ष, स्वाभिमान और सत्ता के सवालों की प्रयोगशाला है.
“कटोरिया का जंगल सिर्फ पेड़ों से नहीं, पुरखों के साहस और संघर्ष से भरा है.”
पीरो मांझी से बिजली तक की क्रांति
जब कटोरिया की आवाज़ दिल्ली तक पहुंची और विकास की लौ जली… 1950 के दशक में कटोरिया विधानसभा से विधायक पीरो मांझी ने एक ऐतिहासिक पहल की. उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से बांका क्षेत्र में बिजली सेवा बहाल करने की मांग रखी. पीरों मांझी की मांग पर पंडित विनोदानंद झा के समय बांका बिजली सेवा बहाल की गई. यह केवल एक बुनियादी सुविधा की मांग नहीं थी, बल्कि एक आदिवासी क्षेत्र की ओर से राष्ट्रीय मंच पर रखी गई पहली प्रखर आवाज़ थी.
पीरो मांझी का यह प्रयास उस समय अद्वितीय था, जब दूरदराज और आदिवासी क्षेत्रों की बातें सत्ता के गलियारों तक नहीं पहुंचती थीं. लेकिन उन्होंने अपनी सूझबूझ और संकल्प से यह दिखा दिया कि कटोरिया जैसे पिछड़े इलाके भी विकास के हकदार हैं.
पंडित नेहरू ने इस मांग को गंभीरता से लिया और बिजली परियोजना को स्वीकृति दी. इसके बाद कटोरिया में पहली बार अंधेरे को चीरते हुए रोशनी की किरणें पहुंचीं.
“एक आदिवासी नेता की आवाज़ संसद में गूंजी और कटोरिया के जंगलों में बल्ब जले.”
पीरो मांझी का यह कदम कटोरिया के राजनीतिक इतिहास में मील का पत्थर बना — जिसने साबित किया कि नेतृत्व अगर जमीनी हो, तो बदलाव संभव है. (बिभांशु शेखर सिंह, विप्लवी बांका, पेज नं.19)
विद्रोह की जड़ें: ‘बौंसी राजा’ और आदिवासी चेतना
कटोरिया-बौंसी की धरती से उठी थी भगीरथी मांझी की आवाज, जिसने ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी थी… 1868, बौंसी के मधुसूदन मंदिर में एक ऐतिहासिक घटना घटी — भागीरथ मांझी ने खुलेआम ब्रिटिश हुकूमत को ललकारा, खुद को “बौंसी का राजा” घोषित किया और अंग्रेजों को लगान देने से इनकार कर दिया.भगीरथ मांझी का जन्म गोड्डा के तलड़िहा में खरवार जनजाति में हुआ था,उनको बाबाजी के नाम से जाना जाता था, इन्होंने 1874 में खरवार आंदोलन को प्रारंभ किया था. यह कोई साधारण विरोध नहीं था, बल्कि आदिवासी अस्मिता और अधिकारों की पहली संगठित पुकार थी.
इस विद्रोह को अक्सर संथाल विद्रोह से जोड़ा जाता है, लेकिन यह अपने आप में एक स्वतंत्र, स्थानीय विद्रोह था. यह बांका की उस विद्रोही परंपरा का हिस्सा था जो सत्ता के अन्याय के सामने झुकना नहीं जानती थी.
कटोरिया, जो बौंसी से सटा इलाका है, उस समय घने जंगलों और पहाड़ी इलाकों से भरा हुआ था — अंग्रेजों की पकड़ यहां बेहद कमजोर थी यही कारण था कि कटोरिया के जंगल, विद्रोह की गुप्त बैठकों, रणनीतियों, और छापामार प्रशिक्षण के केंद्र बन गए.
भागीरथ मांझी का यह आंदोलन सिर्फ लगान या ज़मीन की लड़ाई नहीं था, यह एक अस्तित्व की लड़ाई थी — जिसमें आदिवासी समाज ने अपने जल, जंगल और जमीन के अधिकार की रक्षा की बात कही, और साथ ही अपनी सांस्कृतिक पहचान और स्वायत्तता को भी बचाने का संकल्प लिया.
कटोरिया-बौंसी की यह क्रांतिकारी गाथा, आज भी उस चेतना की याद दिलाती है, जो शोषण के खिलाफ पहली आवाज बनकर उभरी थी — और जिसने आदिवासी इतिहास में प्रतिरोध की अमिट लकीर खींच दी।. (बिभांशु शेखर सिंह, विप्लवी बांका, पेज नं.5-6)
लोकसभा में कटोरिया की ताकत
बांका लोकसभा सीट बनने के बाद कटोरिया आदिवासी विमर्श का केंद्र बना. माओवादी प्रभाव के दौर में भी यहां के लोगों ने लोकतंत्र और विकास के बीच संतुलन बनाना सीखा. जल-जंगल-जमीन की आवाज़ें यहीं से निकलकर संसद तक पहुंची हैं.
आज भी कटोरिया की पंचायतों में आदिवासी और महिला नेतृत्व एक नई तस्वीर पेश कर रहा है.डॉ. निक्की हेम्ब्रोम कटोरिया विधानसभा से विधायक है.शिक्षा, स्वास्थ्य और राशन जैसी समस्याएं बनी हुई हैं, लेकिन राजनीतिक जागरूकता और जन भागीदारी ने बदलाव की नींव रख दी है.
“जो क्षेत्र कभी उपेक्षित था, वही आज लोकतंत्र की नई लकीर खींच रहा है.”
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