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यामी गौतम बनेंगी ‘शाह बानो’, इमरान हाश्मी संग बड़े पर्दे पर जिएंगी एक ऐतिहासिक सच्चाई

यामी गौतम और इमरान हाशमी एक साथ एक ऐसी फिल्म में नजर आने वाले हैं, जो देश के सबसे चर्चित मामलों में से एक पर आधारित है 'शाह बानो' केस. यह केस 1985 में सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सामने आया. फिल्म की घोषणा इस केस की 40वीं वर्षगांठ पर की गई है. यामी इसमें शाह बानो की भूमिका निभा रही हैं, जबकि इमरान हाशमी उनके पति अहमद खान का किरदार निभाएंगे. फिल्म का पहला शेड्यूल पूरा हो चुका है और यह 1970 के दशक की पृष्ठभूमि में बनी है.

बॉलीवुड की दमदार अदाकारा यामी गौतम एक बार फिर एक गंभीर और सशक्त किरदार के साथ दर्शकों के सामने आने वाली हैं. इस बार वह पर्दे पर सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि हकीकत पर आधारित एक ऐतिहासिक सच्चाई लेकर आ रही हैं. यह कहानी है एक ऐसी महिला की, जिसने अपने अधिकारों के लिए सालों तक कानूनी लड़ाई लड़ी और पूरे देश में बहस छेड़ दी.

हक की लड़ाई में यामी

इस फिल्म में यामी गौतम एक बेहद संवेदनशील लेकिन मजबूत महिला के रूप में नजर आएंगी. शाह बानो के किरदार में वह एक ऐसी महिला का चेहरा बनेंगी, जिसने समाज की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ते हुए अपने अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी. यह भूमिका न सिर्फ एक अदाकारा के तौर पर यामी की अभिनय क्षमता को दिखाएगी, बल्कि दर्शकों को उस दौर की महिलाओं की हकीकत से भी रूबरू कराएगी, जब न्याय के लिए उन्हें समाज और धर्म दोनों से टकराना पड़ता था.

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अहमद खान के किदार में इमरान

फिल्म में इमरान हाशमी, मोहम्मद अहमद खान की भूमिका निभाएंगे जो शाह बानो के पति थे, जिन्होंने उन्हें ट्रिपल तलाक देकर छोड़ दिया और गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया. इमरान इस किरदार में एक ऐसे शख्स के रूप में सामने आएंगे, जो न सिर्फ अपनी पत्नी से मुंह मोड़ता है, बल्कि न्याय से भी टकराता है. यह किरदार काफी परतदार है और इमरान की गंभीर अदाकारी को एक नया आयाम देगा.

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शाह बानो केस

यह केस 1978 में शुरू हुआ, जब 62 वर्षीय शाह बानो को उनके पति ने ट्रिपल तलाक दे दिया. शाह बानो ने कोर्ट में भत्ता मांगने का दावा दायर किया, और आखिरकार 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने उनके पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 125 सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होती है, चाहे उनका धर्म कोई भी हो. इस फैसले ने भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक नई बहस छेड़ दी और इसे महिलाओं के हक की दिशा में एक मील का पत्थर माना गया.

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