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Bihar : जनेऊ पहनो से जनेऊ तोड़ो तक, बिहार में हर जाति के लोग क्यों पहनते हैं जनेऊ?

Bihar: जेपी को तो आप जानते ही हैं. जो इंदिरा गांधी की लगाई इमरजेंसी हटवा दी थी. लेकिन वो कहानी फिर कभी. आज हम जेपी के एक ऐसे आंदोलन के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं. जनेऊ पहनो से जनेऊ तोड़ो आंदोलन…

Bihar and caste: बिहार और जाति. बस इतना बोलकर किसी भी नुक्कड़, चाय की दुकान, सभा में चुप हो जाइए. फिर देखिए दो–चार घंटे तो दलील सुन ही लेंगे. लेकिन बहुत कम ही लोग उसके पीछे की कहानी जानते हैं. बहुत कम लोग जानते हैं कि जेपी ने जाति वाले नासूर को मिटाने के लिए एक अंदोलन छेड़ दिया था. इतना ही नहीं, जिस शख्‍सियत ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया, बाद में वही शख्स देश का प्रथानमंत्री बना.

कहानी जनऊ तोड़ो आंदोलन की…

साल 1974, जगह सिताब दियारा, हां, जेपी का गांव,
पीपल के पेड़ के नीचे हजारों लोग कुर्ता उतारे खड़े थे. मंच से एक आवाज गूंजी और सबने अपने जनेऊ पकड़े और पट-पट करके तोड़ डाला. ये आवाज चंद्रशेखर नाम के एक जवान लड़के की थी. बताते हैं कि एक कोई एक दो नहीं करीब 10 हजार लोगों ने उस दिन अपना जनेऊ तोड़ दिया.

पर क्यों…

असल में एक हवा चली थी. एक लहर आई थी, एक आवाज गूंजी थी, एक नारा जुबान पर चढ़ गया था बिहार के लोगों के – हम जाति नहीं मानेंगे!

आज भी यह लाइन जैसे सपना लगती है. 50 साल पहले एक शख्स ने जो सोच लिया था, आज भी बिहार और जाति का विषय धूंधला नहीं हुआ. बहरहाल. आज कहानी बिहार में जनेऊ पहनने और फिर जनेऊ तोड़ने की.

पहले वो कहानी जब जनेऊ पहनने की लहर उठी…

कब : जेपी के 1974 वाले जनेऊ तोड़ो आंदोलन से कई दशक पहले 1899 से 1925 तक.

किसने चलाया : बिहार के पिछड़ी जातियों ने. एक खास बात होगी. एक तरफ हम पिछड़ी जाति बोलेंगे, दूसरी तरफ जाति का नाम कायस्‍थ लिखेंगे. कंफ्यूजन होगा. कायस्‍थ कब से पिछड़े हो गए. पर यकीन मानिए 1899 तक बिहार में कायस्‍थों को पिछड़ा ही मानते थे. असल में कायस्‍थों के पढ़े लिखे होने के कारण सवर्णों बाद में उन्हें सवर्ण का दर्जा दे दिया था. हालांकि ये कहानी बाद में. अभी जनेऊ पहनो आंदोलन.हां तो इस अंदोलन की शुरुआत असल में आर्य समाज के संस्‍थापक दयानंद सरस्वती 1879 में कायस्थ माधोलाल का उपनयन संस्कार कर दिया.

हां, तो क्या हो गया


जब दयानंद सरस्वती ने ये आंदोलन चलाया तो बिहार की माटी के सपूत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इससे जुड़े कार्यक्रम अछूतोद्वार सम्मेलन में आए. सिर्फ आए नहीं कार्यक्रम की अध्यक्षता की. एक भंगी के हाथ से पानी पिए. और पूरे बिहार हिला दिया. यही पर पहली बार जाति का स्गिमा टूटा था.

और भड़क गया दंगा…

पटना के गांव मानेर के हाथीटोला में अभी पूरी तरह से जनेऊ आंदोलन अपने उफान पर आता कि ऊंची जातियों ने इसका तगड़ा विरोध शुरू कर दिया. फणीश्वर नाथ रेणु अपने उपन्यास मैला आंचल में मनेर की घटना को मैरीगंज नाम से लिखते हैं.

जनेऊ आंदोलन में चली गईं कई जानें और लाखोचक…

1899 से 1925, यही कोई 25–26 साल. पिछड़ी जातियां जनेऊ पहनतीं और ऊंची जातियां यह देखकर जल–भुन जातीं कई बार जला और भून भी देतीं. यही करते–करते आ गया 1925 का लाखोचक. यानी मुंगेर की वो जगह जहां ऊंची जाति के लोगों को आखिरकार सरेन्डर करना. असल में उन्होंने त‌ब तक कई सौ लोगों की हत्या कर दी थी.

बिहार के यादव जनेऊ क्‍यों पहनते हैं…

साल 1911, मधेपुरा जिले के मुरहो गांव के एक जमींदार ने एक मुहिम चला दी कि अब यादव भी जनेऊ पहनेंगे. ये जमीदार कोई और नहीं बीपी मंडल के पिता रास बिहारी मंडल थे. ये वही शख्स थे जो कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. उन्होंने रूढ़ियों और भेदभाव को खत्म करने के मकसद से बिहार में यादवों के लिए जनेऊ पहनने की मुहिम चलाई थी.

Ras Bihari Lal Mandal
Bihar : जनेऊ पहनो से जनेऊ तोड़ो तक, बिहार में हर जाति के लोग क्यों पहनते हैं जनेऊ? 4

रास बिहारी मंडल की मुहिम उस समय प्रतिक्रियावादी लग रही थी लेकिन उन्होंने कहा था कि ये स्वाभिमान का आंदोलन था. 1911 में रास बिहारी मंडल ने गोप जातीय महासभा की स्थापना की. फरवरी 1913 को कंकड़बाग, पटना में गोप जातीय महासभा का अखिल भारतीय सम्मेलन हुआ. इसमें बिहार के कई जिलों के अलावा लाहौर, गोरखपुर, लखनऊ और अन्य जगहों के प्रतिनिधि आए थे, काफी बड़ी संख्या में यादव छात्र भी उपस्थित थे.

इस सम्मेलन में शिवनन्दन प्रसाद ने स्वागत भाषण दिया और रास बिहारी मंडल ने पटना सिटी के दामोदर प्रसाद का नाम प्रस्तावित किया. इसी सम्मेलन में जनेऊ पहनने के साथ वर्मा टाइटल लगाने का भी फैसला लिया गया.

बाद में गोप जाति महासभा और अहिर महासभा का विलय होकर अखिल भारतीय महासभा का गठन हुआ. 1917 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड समिति के समक्ष यादवों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए रास बिहारी मंडल ने वायसरॉय को परंपरागत ‘सलामी’ देने की जगह उनसे हाथ मिलाया था. उन्होंने सेना में यादवों के लिए अहीर रेजिमेंट की मांग भी की थी.

रास बिहारी मंडल का जनेऊ आंदोलन सिर्फ धार्मिक या रीतियों का मामला भर नहीं था, बल्कि एक बड़े सामाजिक बदलाव की शुरुआत थी, उस समय पिछड़ी जातियों ने जनेऊ आत्मसम्मान पाने के लिए पहना गया था.

जिसे समाजशास्त्री एफ. जी. बेली ने “संस्कृतिकरण” कहा है—जहां वंचित समुदाय अपने आर्थिक उन्नयन को सामाजिक प्रतिष्ठा में बदलने के लिए उच्च जातियों के प्रतीकों को अपनाते हैं. (राकेश अंकित ‘बिहार में जाति की राजनीति)

समाजशास्त्री एफजी बेली की बातों को आसान शब्दों में कहे तो- जो पिछड़ी जातियां धीरे–धीरे धनवान होती गईं, जिनके पास थोड़े पैसे आ गए, उन जातियों के लोगों ने वो सब कुछ करना शुरू कर दिया जो सवर्ण जातियों के लोग करते थे. जैसे जनेऊ पहन लेना.

यादव, कुर्मी, कोइरी जैसी पिछड़ी जातियों का जनेऊ पहनना इस प्रतीकात्मक बदलाव का हिस्सा था. लेकिन यही बदलाव तत्कालीन जाति व्यवस्था के लिए असहनीय था. इसका सबसे बड़ा प्रमाण 1925 के लाखोचक संघर्ष के रूप में सामने आया.

क्या थी लाखोचक की घटना ?

लाखोचक. लखीसराय शहर से करीब 8 किलोमीटर दूरी पर बसे इस गांव का एक इतिहास है. एक ऐसा इतिहास, जिसे बिहार के इतिहासकार पहली जातीय हिंसा की लड़ाई मानते हैं, लेकिन इलाके के लोग ‘युद्ध’ कहते हैं. बिहार का एक ऐसा इकलौता ‘युद्ध’ जो यहीं रहने वाले दो समुदायों के बीच हुआ. दो दिन तक चला. गोलियां चलीं. आठ से दस लोग मारे गए.

एक ऐसा ‘युद्ध’ जो अपनी जाति को सुरक्षित रखने के लिए किया गया. एक ऐसा ‘युद्ध’ जिसने राज्य में जातीय गोलबंदी को मजबूत कर दिया. एक ऐसा ‘युद्ध’ जिसने भूमिहार और यादव जैसी दो प्रमुख जातियों के बीच एक दूरी पैदा कर दी.

आज कोई नहीं जानता लाखोचक के बारे में

लाखोचक गांव, लखीसराय जिले के सूर्यगढ़ा विधानसभा में आता है. आज लाखोचक में ऐसा कोई नहीं है, जो उस जातीय भिड़ंत की कहानी सुना सके.कोई नहीं है, जो बता सके कि तब क्या हुआ? क्यों हुआ था और क्या-क्या हुआ था?

जिस कहानी को गांव वाले भूल गए हैं. उसे इतिहास की किताबों ने सहेज कर रखा है. लेखक प्रसन्न चौधरी और पत्रकार श्रीकांत की किताब ‘बिहार सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम’ में इस घटना का विस्तार से जिक्र है.

साल था 1925. बिहार में निचली समझी जाने वाली जातियां एक जगह जुटी और सभी एक साथ जनेऊ धारण किया. इसे बिहार में ऊंची समझी जाने वाली जातियों ने खुद के लिए एक चुनौती समझा. कई जगह पर छिटपुट घटनाएं हुईं, लेकिन सबसे बड़ी घटना 26 मई 1925 को लखीसराय के लाखोचक गांव में घटी.

इस दिन जनेऊ धारण करने के लिए आसपास के कई गांवों से यादव बड़ी संख्या में यहां जुटे हुए थे. प्रसिद्ध नारायण सिंह इलाके के बड़े जमींदार थे और जाति से भूमिहार थे. वो इसके खिलाफ थे. उनके नेतृत्व ने करीब हजारों भूमिहारों ने यादवों पर हमला कर दिया.

इस किताब में उस दिन की घटना कुछ यूं दर्ज है, ‘उत्तर-पश्चिम दिशा से करीब 3000 बाभनों की भीड़ गोहारा बांधे बस्ती की तरफ बढ़ रही थी. हाथी पर अपने कुछ लोगों के साथ बैठे विश्वेश्वर सिंह भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे. आजू-बाजू में घुड़सवार थे, जिसमें एक खुद जमींदार प्रसिद्ध नारायण सिंह थे. भीड़ लाठी, फरसा, गंडासा, तलवार और भाले से लैस थी.’

लाखोचक: जहां चली थी गोलियां,

इस दिन लाखोचक में पुलिस ने 118 राउंड फायरिंग की. पुलिस के सब इंस्पेक्टर और एसपी बुरी तरह घायल हुए. इस घटना में 8 से लेकर 80 लोगों के मारे जाने की बात कही जाती है. ऐसा माना जाता है कि लाखोचक की ये घटना बिहार के इतिहास में पहली जातीय हिंसा या जातीय आधार पर बड़े हमले जैसी घटना है. इस घटना ने राज्य की जातीय संरचना को, यहां की व्यवस्था को और आगे चलकर राजनीति को बहुत हद तक प्रभावित किया है. तो यह था लाखोचक का सच.

लाखोचक में स्वर्ण जातियों द्वारा किया गया हमला और प्रशासन द्वारा उनको बचाने के भरपूर कोशिश के बाद भी पिछड़ी जातियों का मनोबल नहीं टूटा. पिछड़ी जातियों ने उच्च जातियों के लिए भविष्य में बेगार बिल्कुल न करने और जनेऊ धारण करने का संकल्प लिया. लाखोचख की घटना बिहार के दो जुझारू खेतिहर जातियों के बीच खुली प्रतिद्वन्द्विता की घटना थी.

जाति संगठनों के उभार,जनेऊ आंदोलन और लाखोचक की घटना के बाद जातियों की बलवती होती सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक आकांक्षाओं ने एक नए संगठन त्रिवेणी संघ के रूप में आकार ग्रहण किया.

लाखोचक के बाद: संघर्ष, अस्मिता और त्रिवेणी संघ का जन्म

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1899 के हाथीटोला और 1925 में लाखोचक जैसी घटनाओं के बाद इन पिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना संगठित होने लगी. इसी प्रक्रिया में 1930 के दशक में त्रिवेणी संघ का गठन हुआ, जिसमें यादव, कुर्मी और कोइरी जातियों की भागीदारी थी. यह संगठन सामाजिक और राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए खड़ा हुआ और भारतीय राजनीति में ‘पिछड़ी जातियों की राजनीति’ की नींव रखी. त्रिवेणी संघ, उच्च जाति के वर्चस्व के प्रति कांग्रेस की उदासीनता के विरोध में स्वतंत्र राजनीतिक दबाव बनाने और एक स्वायत्त राजनीतिक दल बनाने का पहला प्रयास था.

यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस दौर का राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन अपेक्षाकृत उच्च जातीय नेतृत्व के अधीन था. इसलिए एक वैचारिक टकराव उभरने लगा—स्वतंत्रता संग्राम बनाम सामाजिक न्याय के आंदोलन. स्वतंत्रता के बाद के पहले दो दशकों (1947–1960) में भूमिहार और ब्राह्मण जातियाँ सत्ता के केंद्र में रहीं. 1990 के बाद यही वंचित समुदाय सत्ता और नेतृत्व में हिस्सेदारी पाने लगे.

बिहार के जातीय संघर्षों का यह इतिहास हमें बताता है कि प्रतीक कभी-कभी क्रांति का चेहरा बन जाते हैं—जैसे जनेऊ. एक दौर में जब उसे पहनने के लिए लाठियाँ चलीं और एक दौर में जब उसे तोड़ने के लिए लाखों लोग एकत्र हुए—दोनों स्थितियों में लक्ष्य एक ही था: जाति व्यवस्था को नकारना और सम्मानपूर्ण समाज की ओर बढ़ना.

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Pratyush Prashant
Pratyush Prashant
कंटेंट एडिटर और शोधकर्ता . लाड़ली मीडिया अवॉर्ड विजेता. जेंडर और मीडिया में पीएच.डी. . हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित लेखन . यूथ की आवाज़, वूमेन्स वेब आदि में लेख प्रकाशित.

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