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जीवन और प्रेम की सच्चाई से रूबरू करातीं अखिलेश्वर पांडेय की कविताएं

अखिलेश्वर पांडेय, जन्म : 31 दिसंबर 1975, शिक्षा : पत्रकारिता में स्नातक, प्रकाशन : पानी उदास है (कविता संग्रह) 2017 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित. पाखी, कथादेश, कादंबिनी, परिकथा, साक्षात्कार, पुनर्नवा, हरिगंधा, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं एवं समीक्षा आलेख प्रकाशित. कविता कोश, हिंदी समय, शब्दांकन, स्त्रीकाल, हमरंग, […]

अखिलेश्वर पांडेय, जन्म : 31 दिसंबर 1975, शिक्षा : पत्रकारिता में स्नातक, प्रकाशन : पानी उदास है (कविता संग्रह) 2017 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित. पाखी, कथादेश, कादंबिनी, परिकथा, साक्षात्कार, पुनर्नवा, हरिगंधा, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं एवं समीक्षा आलेख प्रकाशित. कविता कोश, हिंदी समय, शब्दांकन, स्त्रीकाल, हमरंग, अशब्द आदि वेबसाइट और ब्लॉगों पर भी रचनाएं प्रकाशित. सम्मान/फेलोशिप : झारखंड के कोल्हान में तेजी से लुप्त हो रही आदिम जनजाति सबर पर शोधपूर्ण लेखन के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया का फेलोशिप और नेशनल अवार्ड. संप्रति : पत्रकारिता से जुड़े हैं.
संपर्क : मोबाइल. 8102397081, ईमेल – [email protected]
प्रेम में
स्त्री जब प्रेम में संलग्न होती है
हमेशा आंखें बंद कर लेती है
वह जानती हैं
अंधेरे में बाकी सभी चीजें खो जाती है
सिर्फ होश बचता है
आंखें हर चीज को सार्वजनिक बना देती है
————–
प्रेम सूत्र
कितने समंदर से बना होगा
तुम्हारे चेहरे का नमक
न जाने कितने गुलाब की पंखुरियों से सजे हैं
तुम्हारे होंठ
कितने बादल समाये हैं
तुम्हारी जुल्फों में
जान लूं ये सूत्र
तो…
समंदर किनारे
बादलों की ओट में
गुलाब रोप दूं!

————–

इंतजार में
तुम्हारा अधूरा
अनकहा
स्पर्शी शब्द
लेकर लौट आया हूं…
लिखूंगा उसी से
मिलन का गीत
तुम्हारे इंतजार में
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स्वप्नदेही
ओ कविते!
चुम्बकीय काला तिल
प्रणय की आस में
प्यास की अनंत लहरों से
खेल रहा तुम्हारे होंठों की नाव पर
तुम वह मधु हो
जिसे प्रकृति ने
असंख्य फूलों से बनाया है
प्रणयेच्छा में तप रही
हे स्वप्नदेही!
तुम्हारी आंखें
रंभा-उर्वशी सी
रश्मि मुकुट पहन
मनुहारी नृत्य करते हुए
मेरे इंद्रासन के समक्ष
अनंत यौवन मदिरा छलका रहीं
तुम्हारे रूप-रस-गंध-स्पर्श में पल रही मछलियां
ह्दय की अतल गहराइयों को छूकर
प्रेम के अकूत आनंद का
अभेद्य रहस्य खोलना चाहती हैं
——————
जीवन गणित
नियम व सूत्रों से चलता यह जीवन
गणित ही तो है
सफल व विफल जीवन के तर्क पर
हमारे अनुमान अक्सर गलत होते हैं
हम हर चीज को
लंबाई-चौड़ाई-ऊंचाई के अनुसार
देखने के आदी हैं
जीवन को भी वैसे ही मापते हैं
हर्ष-विषाद का अनुपात नापते हैं
हर बात को बड़ा या छोटा मानते हैं
जोड़ते-घटाते, गुणा-भाग करते हैं
क्रमानुगात संख्याएं बढ़ाना वंश का
लाभ-हानि की चिंता में हो जाना दुर्बल
अमूर्त को समझे बगैर
निकालना तार्किक परिणाम
करना नाप-तौल यश-अपयश का
गणित नहीं तो क्या है?
संकुचित सोच के आयतन से
नहीं निकलना बाहर
बुद्धि के क्षेत्रफल का नहीं करना विस्तार
क्रय-विक्रय की चालाकी से
दशमलव को दहाई में करना परिणत
गणित ही तो है मेरे भाई!
पर कई बार हमारी ऐसी ही
असमानुपातिक हरकतों से
उलझ जाता है जीवन गणित
और हम सिर खुजाते रह जाते हैं
हमारा यह अंक ज्ञान
खुद के लिए अल्प ज्ञान
साबित होता है
————————-
चिड़िया
चिड़िया हरती है
आकाश का दुख
उसके आंगन में चहचहाकर
भर देती है संगीत
सूने मन में
बादलों को चूमकर
हर लेती है सूरज का ताप
बारिश होने पर
तृप्त होती है चिड़िया
सुस्त पड़ते ही सूरज के
लौट आती है घोंसले में
चोंच में दाने भरकर
खिलाती है बच्चों को
सिखाती है बहेलियों से बचने का हुनर
पढ़ाती है सबक
पंख से ज्यादा जरूरी है हौसला
चिड़िया प्रेम करती है पेड़-पौधों से
करती है प्रार्थना – न हो कभी दावानल
सलामत रहे जंगल
बचा रहे उसका मायका
वह जानती है
उड़ान चाहे जितनी लंबी हो
लौटना पेड़ पर ही है
इसका बचे रहना जरूरी है
मां-बाप की तरह.
————————-
मेरे गांव में
हौसले की झाड़ू से दुख बुहारती है मां
मुश्किलों की मोतियाबिंद से
कमजोर हो गयी हैं आंखें उसकी
फिर भी –
भूत-भविष्य-वर्तमान
बहुत साफ-साफ दिखता है उसे!
बचपन की भौजाइयां
असमय बूढ़ी हो गयी हैं
जिम्मेवारियों की बोझ ने
छिन ली है उनकी खूबसूरती
हंसी-मजाक की जगह ले ली है
नाती-पोतों ने!
शाम होते ही कई घरों से
छनकर आने लगी टीवी की आवाज
स्टार प्लस देख रहे बच्चे और बूढ़े
कैडबरी और मैनफोर्स का विज्ञापन आते ही
छोटी बहू ने बदल दिया चैनल
अब शाहरुख के आगे नाच रही सन्नी लियोनी
गा रही गाना –
लैला ओ लैला!
लल्लन बाबू का छोटका स्साला
गबरू जवान हो गया है
छेड़ता है लड़कियों को राह चलते
मैंने पूछा उससे
क्यूं भई! क्या चल रहा है
बोला-
पुलिस में जाने की तैयारी कर रहा हूं!
पढ़ा था जिस जर्जर स्कूल में मैं
अब वह आलीशान बन गया है
कई कमरे, रंग रोगन, चहादीवारी
सबकुछ एकदम चकाचक
बस
मास्साब की जगह बच्चों ने ले ली है
अब बच्चे ही पढ़ाते हैं बच्चों को!
आम का लंगड़ा पेड़
अब भी खड़ा है यूं ही तन कर
इस बार आये हैं खूब मंजर
रामदीन काका कह रहे थे-
अब भी वैसी है मिठास उसमें
तो फिर
आसपास के बाकी पेड़ कहां गये!
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