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मर्म को स्पर्श करतीं स्मिता सिन्हा की नयी कविताएं

1. और एक दिन हम सरकते चले जाते हैं उन्हीं सड़कों पर जिन पर भभकती आग है हम थामते चले जाते हैं झुलसे हुए हाथों को हम चीखते चले जाते हैं घुटते हुए शब्दों को और एक दिन हम देखते रह जाते हैं जलते हुए जंगल मरते हुए परिंदे सूखती हुई नदियां दरकते हुए पहाड़ […]

1. और एक दिन

हम सरकते चले जाते हैं
उन्हीं सड़कों पर
जिन पर भभकती आग है
हम थामते चले जाते हैं
झुलसे हुए हाथों को
हम चीखते चले जाते हैं
घुटते हुए शब्दों को

और एक दिन
हम देखते रह जाते हैं
जलते हुए जंगल
मरते हुए परिंदे
सूखती हुई नदियां
दरकते हुए पहाड़
और एक दिन
टूटती चली जाती है
हमारी जिद कि
बचा ले जायेंगे हम जीवन

और एक दिन
हम हंसते नहीं
रोते भी नहीं
बस फटी सी आंखों से
देखते रह जाते हैं
चील के पंजों मे
फंसा अपना सिर
और एक दिन
हम एक दूसरे के कानों में
धीरे से बुदबुदाते हैं अपना डर
और एक दिन
हम दबे रह जाते हैं
धूल और राख की ढेर में …………..

2. तुम्हारे वक़्त की औरतें (1)

तुम्हारे वक़्त की औरतें
नहीं होतीं
बारिश, बसंत, हवा या धूप
वो तो होती हैं
तुम्हारे विस्तीर्ण साम्राज्य का
सबसे अभिशप्त त्याज्य कोना

तुम्हारे वक़्त की औरतें
नहीं होतीं
किसी मधुर प्रेम कहानी की नायिका सी
सभी सोलह कलाओं में प्रवीण
अपने सभी किरदारों में पारंगत
वो तो होतीं हैं
अमावस्या की काली गहराती रात
जिसमें उतरता है
उनके देह का रेशा-रेशा

तुम्हारे वक़्त की औरतें
क्रूर भी होतीं हैं
और बेचारी भी
पर माहिर नहीं होतीं
स्वांग रचने में
कि वे अंत तक नहीं समझना चाहतीं
कि वे बस एक मोहरा भर हैं इस खेल में

तुम्हारे वक़्त की औरतें
होतीं हैं
एकांत का एक उन्मत विलाप
जो सहज स्वीकार कर लेती हैं
तुम्हारे प्रेम में मिलने वाली
अपनी सम्भावित हार………..

3. तुम्हारे वक़्त की औरतें (2)

तुम्हारे वक़्त की औरतें
अपने मुश्किल समय की
सबसे आसान शह होती हैं
जो बड़ी ख़ामोशी से जानती हैं
जिंदा रहना
उन्हें मालूम है
एक-एक सांसों की कीमत
कि लंबे समय से
सांसों को साधे
देखती रही हैं
अप्रत्याशित से बीतते सच को

तुम्हारे वक़्त की औरतें
नहीं चाहतीं
प्रश्न वृत्तों की परिधि में उलझना
बीत चुके दिनों का हिसाब रखना
उन्हें कोई पूर्वाग्रह नहीं
कि वे बखूबी जानती हैं
प्रेम दुनिया का
सबसे खुबसूरत खैरात है

तुम्हारे वक़्त की औरतें
छूटती चली जाती हैं
धुंध, धूंए, धूल और शोर में
अपने ही विरुद्ध खड़ा करती हैं
अपनी ही इकाई
कि अब जरूरी हो चला है
भ्रम का विलय

कल मैं तुम्हारे वक़्त की
एक औरत से मिली
बातों-बातों में
आंसू झरने लगे उसकी आंखों से
मैंने उसे न रोका, न टोका
संयत होकर उसने कहा मुझसे
खुशकिस्मत हो
अपने वक़्त में हो
मैं चुपचाप मुस्कुराती रही
मैं महसूस कर रही थी
अपने कंठ में अटके हुए
आंसूओं का वेग ……………………

4. इंतज़ार

मैंने इंतज़ार को
एक गाढ़े एकांत में देखा
और देखा
एक निचाट सूनापन
बढ़ती हुई व्याकुलताएं

मैंने इंतज़ार को
सभी दिशाओं में देखा
और देखा
सफर में उठते
थकते से क़दम

मैंने इंतज़ार को
अनंत में देखा
और देखा
सिकुड़ता हुआ
स्व का विस्तार

मैंने इंतज़ार को
आंखों में देखा
और देखा
चटखता सा स्वप्न

मैंने इंतज़ार को
ताखे पर जलते
उस दीये की लौ में भी देखा
और देखा
उस देहरी पर रखा
एक अकेला मन

मैंने इंतज़ार के सापेक्ष
कई कई अंतहीन इंतज़ार को देखा
मैंने इंतज़ार को हमेशा
इंतज़ार में ही देखा………………..

5. वज़ह

मैंने देखा है कि
स्वप्न के व्यास से बाहर
अक्सर त्याज्य मानी जाती हैं
सारी मूर्त अमूर्त वेदनाएं
उनके होने की आश्वस्ति
और हम अपनी ही परछाइयों की पीठ पर
ताउम्र ढूंढ़ते रह जाते हैं
अपने जीवन का विकल्प
यही वज़ह है कि
मुझे कभी भी
जरूरी नहीं लगा कि तुम्हें दूं
अपने चल चुके क़दमों का हिसाब
जो कभी समझ पाओ, तो समझना कि
क्यों लौट आती हूँ मैं तुम्हारे पास
हमेशा खाली हाथ
उस उदास नदी के किनारे
अपनी हँसी को रखकर………….

6. सलीब

मैं धरती का
एक चौथाई हिस्सा हूं
जो बंजर है
भयावह है
जहरीला है
जो विकृत है
विद्रूप है
जिसकी कोख में दफन हो गये
मानव सभ्यता के सारे दस्तावेज़
जिनकी शिनाख्त अब मुमकिन भी नहीं
तुम ऐसा करो
एक कील लाओ
और लाओ हथौड़ा
और ठोंक दो मुझे
उस काठ पर
जिसके नीचे
धरती की नमी है
बाकी है अभी
तीन चौथाई हिस्सा ज़िंदगी का
जटिल समय की
ये अभिन्नताएं
यहां बेचैन करती हैं मुझे

हालांकि सलीब पर टंगे रहना भी
किसी चुनौती से कम नहीं…………..

7. भीड़

देखो वह एक भीड़ है
जो चली जा रही है
अनंत अबूझ यात्राओं पर
एक ही धारा में लगातार
जिस ओर की हवा चली है
जिस ओर धरती धंसी है
जिस ओर उफन रहे हैं सागर
जिस ओर दरक रहे हैं पहाड़
देखो भीड़ के हाथ में एक पत्थर
जिसे वे उसे फेंक रहे हैं लगातार
उस बेहद खराब वक़्त के विरुद्ध

देखो वह भीड़ गुजरती जाती है
ध्वस्त होते उन तमाम आदर्शों
और प्रतिमानों के बीच से
और बटोरती जा रही है
बिखरे पड़े विमर्शों की परछाइयां
भीड़ सतर्क है और सावधान भी
समझ रही है अपने खिलाफ फैलती
जटिलताओं को खूब बारीकी से
उनके हाथों में ख़ंजर है और ढाल भी
ताकि वे बचा सकें अपने हिस्से की थोड़ी सी धूप

देखो उस भीड़ को
जिन्होंने निगल लिया है अपनी आत्मा को
या कि नियति पर अंकित अंधकार को
देखो वे भिंची हुई मुठ्ठियां
तनी हुई भौंहे
प्रतिशोध में लिप्त कठोर चेहरे
और मौन,खौफ, क्षोभ
और गहराते रक्त के खालिश ताजे धब्बे
यह भीड़ अब नहीं समझना चाहती
ककहरे, प्रेम या कि गीत
उसे सब विरुद्ध लगते हैं अब
धरती,सागर,पहाड़,कल्पना या कि कलम
तुम देखना हमेशा यही भीड़ टांग दी जाती है सलीब पर
इससे पहले कि वो आ पाए हमारे करीब
थूक पाए हमारे मुंह पर ………

परिचय :

स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय

शिक्षा :
एम ए (एकनॉमिक्स ),पटना
पत्रकारिता (भारतीय जनसंचार संस्थान ),
विभिन्न मीडिया हाउस के साथ 15 से ज्यादा वर्षों का कार्यानुभव ,
एम बीए फेकल्टी के तौर पर विश्वविद्यालय स्तर पर कार्यानुभव.

नया ज्ञानोदय , ‘कथादेश ‘, ‘इन्द्रप्रस्थ भारती ‘, ‘लोकोदय ‘ इत्यादि पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.

कविता कोष पर भी रचनाएं उपलब्ध.

जानकीपुल ,शब्दांकन जैसे प्रतिष्ठित ब्लॉग पर भी कवितायें आ चुकी हैं.

Mail id : [email protected]

पता : V-704, Ajnara homes 121,Sec-121,Noida (UP)

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