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Gaya News: गया के 100 साल पुराने रंगमंच पर बेबसी का पर्दा, 20 वर्षों से पूरी तरह है बंद

Gaya News: वर्ष 1952 में गया जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन के तत्वावधान में जयशंकर प्रसाद लिखित व बांके बिहारी लाल द्वारा निर्देशित ध्रुवस्वामिनी का सफल मंचन गंगा महल में हुआ. इस दौरान आनंद क्लब व कई अन्य संस्थाओं ने जालियांवाला बाग सहित कई नाटकों का सफल मंचन किया.

Gaya News, नीरज कुमार: गया के करीब सौ साल पुराने रंगमंच को ग्रहण लग गया है. एक वक्त था जब यहां का रंगमंच काफी गौरवशाली हुआ करता था, पर अब स्थिति काफी खराब है. करीब दो दशकों से यहां की रंग मंच की गतिविधियां शून्य हैं. इतना ही नहीं बीते करीब पांच वर्षों से प्रेक्षागृह रेनेसां में नाटकों के मंचन पर ब्रेक लग हुआ है. हालांकि नाटक मंचन के दौरान यहां एक विशेष वर्ग को ही प्रवेश की अनुमति रही थी, फिर भी यहां नामी कलाकारों के मंचन होने के बाद भी सामान्य वर्ग के लोग नाट्य विद्या से नहीं जुड़ सके. नाट्य कला से जुड़े पूर्व के कलाकारों के अनुसार वर्ष 1900 के बाद गया में रंगमंच तेजी से फलने फूलने लगा. स्टेज मंचन के साथ-साथ नुक्कड़ नाटकों का दौर भी तेजी से फलने-फूलने लगा था. इस सौ साल पुराने रंगमंच को आज इक्के-दुक्के नाट्य संस्था व कलाकर पुनर्जीवित करने की कोशिश में लगे हैं.

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रंगमंच की तस्वीर

सबसे पहले वर्ष 1935 में आनंद क्लब की हुई थी स्थापना

शहर में सबसे पहले वर्ष 1935 में रंगकर्मी बांकेबिहारी लाल (जो अब नहीं रहे) ने आनंद क्लब की स्थापना की थी. इस क्लब के कलाकारों ने क्रांतिकारी नाटकों का मंचन कर स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. नाटक मंचन के दौरान ब्रिटिश हुकूमत द्वारा कई बार कलाकारों को पकड़ा भी गया था. इसके बाद इंपिरियल क्लब व मिनिस्ट्रियल क्लब की स्थापना हुई. इन क्लबों द्वारा रंगमंच के साथ-साथ साहित्य व खेल का भी आयोजन किया जाता था. तब के समय में चर्चित रहे रंगकर्मी एस विष्णुदेव नारायण सिंह उर्फ एस विष्णुदेव सहित कई कलाकार रंगमंच से जुड़कर इसकी कृति को और विख्यात किया. इसके बाद लगातार नये कलाकारों का रंगमंच से जुड़ाव होता रहा. समय बीतने के साथ वर्चस्वता को लेकर नयी संस्थाएं भी बनती रही. वर्ष 1950 के बाद शहर का माहौल पूरी तरह से सांस्कृतिक बन गया था.

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रंगमंच की तस्वीर

हिंदी और मगही के साथ वर्ष 1952 से बांग्ला रंगमंच की भी हुई थी शुरुआत

वर्ष 1952 से ही बांग्ला रंगमंच भी शुरू हुआ. दुर्गाबाड़ी, रेलवे इंस्टीट्यूट, पुलिस लाइन, बंगाली कॉलोनी में हिंदी व मगही के साथ कई बंगला नाटकों का भी सफल मंचन हुआ. इस दौर में बिना किसी प्रशिक्षण संस्थान के यहां के कलाकारों ने अपनी अभिनय से लोगों को न केवल अचंभित किया, बल्कि दूर-दूर तक यहां के रंगमंच को पहुंचाने का भी काम किया. नाट्य विद्या से जुड़े यहां कई ऐसे कलाकार हुए, जिन्होंने हिंदी से लेकर भोजपुरी फिल्मों तक में भी अपनी अभिनय दक्षता को बखूबी स्थापित करने में सफलता अर्जित की. यहां के कई कलाकारों ने एक दर्जन से अधिक नाट्य संस्थाओं की भी स्थापना की, जिनमें भरतमुनि रंगमंडल, नाट्य स्तुति, कलाकार संघ, क्रिएटिव प्रोडक्शन, प्रगति नाट्य संस्था का नाम प्रमुख रूप से रहा था.

शासन-प्रशासन का मिलता प्रोत्साहन तो शायद नहीं होता यह हश्र

यहां के रंग मंच को संजोने में यदि शासन प्रशासन का प्रोत्साहन मिलता तो शायद यह हश्र नहीं होता. एक सुसज्जित प्रेक्षागृह का अभाव यहां के रंगकर्मियों के लिए सबसे बड़ी कमी थी. बावजूद यहां के कलाकार अपने स्तर से समाज से जरूरत के अनुसार धन संग्रहित कर अपनी प्रतिभा को निखारने के लिए हर संभव कोशिश करते रहे. उम्र बढ़ने के साथ कलाकारों की यह कोशिश कमजोर होने लगी. यदि एक अदद भी सुसज्जित प्रेक्षागृह होता तो कलाकारों की यह कोशिश कभी बेकार नहीं जाती और कभी यहां का रंगमंच कमजोर नहीं होता. आज के दौर में भी यहां का रंगमंच गुलजार रहता.

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इन कलाकारों का रंग मंच से लंबे समय तक रहा जुड़ाव

गयाजी में कई ऐसे रंगकर्मी हुए जिनका रंग मंच से लंबे समय तक जुड़ाव रहा. ऐसे कलाकारों में मुख्य रूप से एस विष्णु देव, बांकेलाल बिहारी, गोविंद प्रसाद सिन्हा, बद्री विशाल, नरगिस, छप्पन छुरी, पद्मा खन्ना, केके मिश्रा, इंद्रजीत सिंह इंदू, राजेंद्र अकेला, रामस्वरूप विद्यार्थी, बीएन गुर्जर, जद्दनबाई, ईश्वरी प्रसाद, अवधेश प्रभास, संजय सहाय, दुर्वा सहाय, उस्ताद नूर मोहम्मद खान, शिवकुमार, डॉ पप्पू तरुण, कुमारिका संन्यास, प्रतिमा कुमारी, जयश्री, शंभू सुमन, शहजाद खान, सुनील स्मिथ, धामा वर्मा, धर्मेंद्र कुमार यादव, अभय कुमार, आशुतोष सिन्हा, महीधर झा महिपाल, प्रवीण ओझा, प्रणव मिश्र, निर्मल पांडेय, सुजीत चटर्जी, दीपा नाग, गोपा नाग, कुमारी चंद्रकांता, अशोक कुमार पटवा, मनीष मिश्रा, मानस कुमार दा, नीरज कुमार, महेंद्र चौरसिया पुष्पा कुमारी, इंद्रजीत सिंह इंदु, राजकुमार सोनी, सहित कई अन्य शामिल हैं.

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रंगकर्मियों की जुबानी यहां की कहानी

रंगमंच की स्थिति गया ही नहीं पूरे मध्य एशिया में अच्छी नहीं है. मेरे अनुसार रंगमंच की बेहतरी के लिए सबसे शौकिया रंगमंच पुर्णजिवित करना होगा- डॉ पप्पू कुमार तरुण, रंगकर्मी.

भारत के रंगमंच का इतिहास विश्व में सबसे पुराना है. रंगमंच या अभिनय समाज को वैसे रचनाशीलता को जन्म देता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.- शंभू सुमन, नाट्यश्री से पुरस्कृत रंगकर्मी

विश्व रंगमंच दिवस की सभी रंग प्रेमियों को शुभकामनाएं. गया में जो रंग मंच था, शासन प्रशासन की उपेक्षा से आज विलुप्त हो गया है. संसाधनों की कमी मुख्य कारण रही.- धाम वर्मा, रंगकर्मी सह फिल्म कलाकार

यहां के कलाकारों को शासन व प्रशासनिक स्तर पर सुसज्जित मंच अथवा प्रेक्षागृह उपलब्ध हो तो मृत प्रायः हो चुकी यहां की कला संस्कृति व रंगमंच का पुनरुत्थान संभव है.- सुनील स्मिथ, रंगकर्मी

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Paritosh Shahi
Paritosh Shahi
परितोष शाही डिजिटल माध्यम में पिछले 3 सालों से पत्रकारिता में एक्टिव हैं. करियर की शुरुआत राजस्थान पत्रिका से की. अभी प्रभात खबर डिजिटल के बिहार टीम में काम कर रहे हैं. देश और राज्य की राजनीति, सिनेमा और खेल (क्रिकेट) में रुचि रखते हैं.

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