चकाई . 25 जून 1975 को लगाये गये आपातकाल की बरसी पर लोकतंत्र प्रेमियों ने गहरी पीड़ा और आक्रोश व्यक्त करते हुए इसे भारतीय लोकतंत्र के माथे पर काले धब्बे के रूप में याद किया. आपातकाल की विभीषिका को याद करते हुए जेपी सेनानी राजेश सिंह ने कहा कि उस दौर में तानाशाही सोच के तहत जनता की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की आजादी और संविधान प्रदत्त मूल अधिकारों को कुचल दिया गया था. लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सीधा हमला करते हुए तत्कालीन सरकार ने विरोध की हर आवाज को दबाने के लिए काले कानूनों का सहारा लिया.
जेपी की क्रांति से घबरा गयी थी सत्ता
उन्होंने कहा कि महान स्वतंत्रता सेनानी लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रही संपूर्ण क्रांति की लहर से सत्ता इतनी घबरा गयी कि सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोप दिया गया. भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई जैसे जनसरोकारों को लेकर खड़े हुए आंदोलन को कुचलने के लिए क्रूर दमन चक्र चलाया गया. 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में सभा को संबोधित कर रहे लोकनायक जेपी को मंच से ही गिरफ्तार कर कर्नाल जेल भेज दिया गया. उसके बाद पूरे देश में जेपी सेनानियों पर छापेमारी अभियान चला, उन्हें संज्ञेय अपराधों में फंसाकर जेलों में डाल दिया गया और अमानवीय यातनाएं दी गईं.लोकशाही का अपमान था आपातकाल
आपातकाल वह काला दौर था जब सरकार ने लोकतंत्र को निलंबित कर दिया था. लोकसभा का कार्यकाल समाप्त हो जाने के बावजूद चुनाव नहीं कराए गये. लोकतांत्रिक संस्थाओं को पंगु बना दिया गया यह सब एक व्यक्ति के सत्ता मोह और अहंकार का परिणाम था.सत्ता सेवा का माध्यम है, शोषण का नहीं
आपातकाल के दौरान आंदोलनकारियों ने यह भी स्पष्ट संदेश दिया कि सत्ता किसी शासक की जागीर नहीं, जनता की दी हुई जिम्मेदारी होती है। लोकतंत्र में सत्ता जनता का सेवक है, न कि उसका शासक। सत्ता को संविधान का प्रहरी बनकर जन-जीवन की संवेदनशील सेवा करनी चाहिए। यदि सत्ता अहंकार में चूर होकर तानाशाही रवैया अपनाती है तो जनता उसे उखाड़ फेंकने की ताकत रखती है आपातकाल जैसे अंधकारमय अध्याय को देश कभी नहीं भूलेगा. लोकतंत्र की रक्षा के लिए सतर्कता और जागरूकता आवश्यक है, ताकि भविष्य में फिर कभी ऐसी स्थिति पैदा न हो.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है