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संतोष चंद ने लिया कठिन तपस्या संथारा का व्रत

जैन धर्म में स्वैच्छिक मृत्यु तक उपवास की परंपरा.

-जैन धर्म में स्वैच्छिक मृत्यु तक उपवास की परंपरा.

-अन्न जल का पूर्ण रूप से परित्यागकिशनगंज शहर के गांधी चौक निवासी संतोष चंद श्यामसुखा ने संथारा जैसी कठिन तपस्या का संकल्प लिया, जो जैन धर्म की सबसे पवित्र और कठिन प्रथाओं में से एक है. संथारा में आजीवन भोजन और जल का क्रमिक त्याग कर व्यक्ति ध्यान, प्रार्थना और जैन सिद्धांतों का पालन करते हुए आत्म-शुद्धि और मोक्ष की ओर अग्रसर होता है. उन्होंने यह स्वेच्छिक प्रथा, तेरापंथ धर्मसंघ के आचार्य श्री महाश्रमणजी की अनुमति और समणी निर्देशिका भावित प्रज्ञाजी आदि की देखरेख में शुरू की.

गौरतलब हो कि 2015 में राजस्थान हाइकोर्ट ने संथारा पर रोक लगा दिया था, लेकिन जैन समुदाय के विभिन्न धार्मिक संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगा दी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संथारा जैन धर्म में एक धार्मिक प्रथा है और इसे कानूनी रूप से प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि संथारा एक धार्मिक विकल्प है और इसे आत्महत्या नहीं माना जा सकता है. तपस्वी वह महान आत्मा है, जो स्वेच्छा से शारीरिक और मानसिक कष्ट सहकर आत्मा को परम शुद्धता की ओर ले जाता है. संथारा तपस्वी की दृढ़ इच्छाशक्ति और आध्यात्मिक शक्ति को दर्शाता है.

जैन धर्म में सर्वोच्च व्रत माना जाता है संथारा

असल में संथारा जैन धर्म की एक ऐसी परम्परा है, जिसमें मृत्यु को भी एक महोत्सव के रूप आत्मसात किया जाता है. इसे जैन धर्म में एक सर्वोच्च व्रत माना जाता है. यह प्रथा असल में स्वेच्छा से देह त्यागने की परंपरा है. जैन धर्म में इसे जीवन की अंतिम साधना माना जाता है, जो एक धार्मिक संकल्प भी है. इस प्रथा में भगवान महावीर के उपदेशानुसार जन्म की तरह ही मृत्यु को भी उत्सव का रूप दिया जाता है.

अपनी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना है संथारा

जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसकी मृत्यु का समय नजदीक है, तो वह अंत समय में अपनी इच्छाओं को वश में करके अन्न और जल का त्याग कर देता है. संथारा लेने वाला व्यक्ति धीरे-धीरे अपना भोजन कम कर देता है और एक समय बाद जल का भी त्याग कर देता है.

परिवार और समाज की सहमति जरूरी

जब कोई व्यक्ति संथारा की इच्छा व्यक्त करता है, तब सबसे उसे अपने परिवार व पूरे समाज की सहमति लेना आवश्यक होता है और इसके बाद आचार्य से इसकी अनुमति मांगी जाती है. इस प्रक्रिया में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को देखने के बाद ही संथारा की अनुमति दी जा सकती है.

उदाहरण के तौर पर अगर एक 20 वर्ष का युवा शारीरिक या फिर मानसिक रूप से पीड़ित है, तो उसे संथारा की अनुमति मिल सकती है, लेकिन वहीं अगर कोई 90 वर्ष का वृद्ध व्यक्ति स्वस्थ है, तो उसे इसकी अनुमति नहीं मिल सकती. संथारा लेने की धार्मिक आज्ञा किसी गृहस्थ और मुनि या साधु को है. जैन धर्म के मुताबिक, जब कोई व्यक्ति गंभीर बीमारी से पीड़ित हो और उसका इलाज संभव हो, या फिर जब व्यक्ति का शरीर उसका साथ न दे, तब संथारा लिया जा सकता है. संथारा लेने के बाद भी डॉक्टरी सलाह ली जा सकती है, इससे व्रत में कोई बाधा नहीं आती.

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