Exclusive: विनय कुमार/ मुजफ्फरपुर. देश में एक शहर ऐसा भी है, जहां गायों और कुत्तों की समाधि बनी हुई है. पशु प्रेम का यह नायाब उदाहरण मुजफ्फरपुर में देखने को मिलता है. उत्तर छायावाद के महत्वपूर्ण रचनाकार आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का पशु-प्रेम न केवल शहर वासियों के लिये बल्कि देश भर के साहित्यकारों के लिये हैरत की बात रही. महाकवि को कुत्तों और गायों से इतना प्रेम था कि उनकी मृत्यु के बाद अपने आवास परिसर निराला निकेतन में ही उसकी समाधि बनायी. महाकवि के दिवगंत हुए 14 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन निराला निकेतन में बनी 30 गायों और दो कुत्तों की समाधि आज भी लोगों को उनके पशु-प्रेम की भावना को दर्शाता है. आचार्य का गायों से प्रेम उनका पैतृक संस्कार था, लेकिन समय के साथ कुत्तों, बिल्लियों, चिड़ियों से उनका प्रेम बढ़ता गया. उनके आवास में एक दर्जन कुत्ते और चार-पांच गायें हमेशा रहा करती थी. उनके मरने के बाद वह अपने परिसर में ही उसकी समाधि बनवाते थे और नियमित तौर पर समाधि के पास जाकर प्रणाम भी करते थे.
पशु-पक्षियों को साथ लेकर बनाया था वृहत्तर परिवार
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने पशु-पक्षियों को साथ लेकर वृहत्तर परिवार बनाया था. आचार्य ने अपनी संस्मरण की पुस्तक अष्टपदी में इसका जिक्र किया है. आचार्य ने लिखा है कि यह मेरा वृहत्तर परिवार है. इन्हें छोड़कर मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता हूं. पशुओं से इनका प्रेम इतना अधिक था कि उनके दो प्यारे कुत्ते भालचंद्र और विनायक हमेशा उनके साथ रहा करते थे. आचार्य ने दोनों का नामकरण किया था. 1997 में भालचंद्र और 1998 में विनायक ने इनका साथ छोड़ दिया. आचार्य अपने बरामदे के समीप ही दोनों की समाधि बनवायी. आचार्य कहते थे कि व्यक्ति से धोखे की गुजांइश रहती है, लेकिन पशु जिससे प्रेम करता है, तन-मन से उसी का हो जाता है. पशु प्रेम के कारण ही आचार्य ने पहली गाय का नाम कृष्णा रखा और उसके रहने के लिये आवास परिसर में ही शेड लगा कर उसका नामाकरण कृष्णायतन किया.
40 पुस्तकों की रचना, पद्मश्री पुरस्कार ठुकराया
आचार्य का निधन सात अप्रैल, 2011 को हुआ. अपने जीवन काल में आचार्य ने गीत संग्रह, गीति नाट्य, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, आलोचना और समीक्षा की 40 पुस्तकें लिखीं. वर्ष 2010 में केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की गयी, लेकिन उन्होंने मना कर दिया. वे अपने लेखन और पशु-प्रेम से ही खुश रहा करते थे. आचार्य के शिष्य डॉ विजय शंकर मिश्र कहते हैं कि आचार्य के मन में कभी भी किसी पुरस्कार की कामना नहीं थी. हमेशा वह पढ़ने और पशुओं से प्रेम करने की सीख दिया करते थे. वह अपनी आय का अधिक हिस्सा पशुओं की देखभाल पर ही खर्च किया करते थे.