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Patna News: पारंपरिक कलाओं को संवार रहीं महिलाएं, कुंची-बांस और धागे से गढ़ी जा रही लोक संस्कृति की नयी कहानी

Patna News: बिहार की कला और संस्कृति बेहद समृद्ध है. मधुबनी पेंटिंग के अलावा भी राज्य में कई अनोखी लोक कलाएं हैं, जो आज गुमनामी के कगार पर पहुंच चुकी हैं. ‘पटना कलम शैली’, ‘भोजपुरी पेंटिंग’, ‘बैम्बू आर्ट’ और ‘बावन बूटी’ जैसी कलाएं सदियों से बिहार की सांस्कृतिक पहचान रही हैं.

Patna News: आधुनिकता की दौड़ में जहां नयी पीढ़ी इनसे दूरी बना रही है, वहीं कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं, जो इन पारंपरिक कलाओं के संरक्षण और पुनर्जीवन में जुटी हुई हैं. वे न सिर्फ इन कलाओं को सहेज रही हैं, बल्कि उन्हें नये रूप में प्रस्तुत कर समाज को फिर से इनसे जोड़ने का प्रयास कर रही हैं. इन महिलाओं की मेहनत से यह उम्मीद बंधती है कि ये लोक कलाएं फिर से जीवंत होंगी और अपनी खोई हुई पहचान वापस पायेंगी. विलुप्त होती कला को जीवन देने वाली महिलाओं से रूबरू करा रही है जूही स्मिता की यह रिपोर्ट.

बांस की बुनावट से नया भविष्य गढ़ रहीं संगीता

नौबतपुर की रहने वाली संगीता कुमारी बैम्बू कलाकार हैं, जो साल 1996 से बांस से कई बेहतरीन और आकर्षक उत्पादों को तैयार करती हैं. इस हुनर की शुरुआत उनके पति ने 1993 में ब्लॉक स्तर पर हुए प्रशिक्षण से की थी, जिसके बाद दोनों ने इसे जीवन का मिशन बना लिया. उनके पति ने वहां की 12 महिलाओं को प्रशिक्षित किया. संगीता ने पति के साथ दिल्ली में पहला स्टॉल लगाया और वहां से उनकी कला ने गति पकड़ी. उन्होंने देश-विदेश में अपने उत्पाद भेजे और कई महिलाओं को प्रशिक्षित भी किया. आज के डिजिटल और तेज युग में लोग मेहनत और धैर्य से बचते हैं. लेकिन संगीता मानती हैं कि अगर कोई ईमानदारी से काम करे तो बांस का काम सिर्फ कला नहीं, आत्मनिर्भरता का जरिया बन सकता है. उनका मकसद साफ है नयी पीढ़ी को जोड़ना, ताकि यह कला सिर्फ किताबों या स्मृति में न रह जाये, बल्कि रोजमर्रा की चीजों में फिर से जिंदा हो.

2019 से भोजपुरी पेंटिंग को संवार रहीं विनीता कुमारी

रोहतास की विनिता कुमारी वर्ष 2019 से भोजपुरी पेंटिंग को अपनी पहचान बना चुकी हैं. उनका दावा है कि यह कला कभी उनके गांव की हर महिला की दीवार पर दिखती थी, लेकिन आज समय और मेहनत की कमी के कारण लोग इससे दूर हो गये हैं. वे कहती हैं, इसमें प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल होता है, जिसमें काफी मेहनत करना होता है, जो आज की पीढ़ी नहीं करना चाहती है. उन्हें अपनी कला और संस्कृति से प्रति प्यार से इस कला से जुड़ने का मौका दिया. उन्होंने बताया कि भोजपुरी पेंटिंग में ज्यामितीय आकृतियों और प्राकृतिक रंगों से जीवन के गहरे भावों को उकेरा जाता है. विनीता ‘पिढ़िया’ शैली में चित्रण करती हैं, जो सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों विषयों को समेटे होती है. उनकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी आरा, पटना, नयी दिल्ली में लग चुकी है. उन्हें हाल ही में सीसीआरटी, नयी दिल्ली से जूनियर फेलोशिप भी मिला है. वे चाहती हैं कि भोजपुरी पेंटिंग केवल दीवारों या साड़ियों तक सीमित न रहे, बल्कि लोगों की संस्कृति की अभिव्यक्ति बने.

साड़ी की हर बूटी में नीलू संजोती है कला विरासत – नीलू कुमारी, कलाकार, बिहारशरीफ

बिहारशरीफ, नालंदा की नीलू कुमारी पिछले दस साल से बावन बूटी की साड़ियों को न सिर्फ बुन रही हैं, बल्कि उन्हें दुनिया से फिर जोड़ रही हैं. शादी के बाद उनके ससुराल में यह परंपरा देख उन्होंने इस कला में रुचि ली. पहले इसे दुल्हनों और मेहमानों को शुभ अवसरों पर तोहफे के रूप में दिया जाता था. अब यह कला धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है. हालांकि उनके ससुर स्व कपिल देव प्रसाद, जिन्होंने इस कला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलायी, उनके प्रेरणा स्रोत रहे. वे कहती हैं- बावन बूटी का मतलब है-52 मोटिफ्स. यह छह गज की साड़ी पर रेशम के धागों से तैयार की जाती है. बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्ह, जैसे कमल, त्रिशूल, धर्मचक्र आदि इसमें खास होते हैं. एक साड़ी को बनने में 10–15 दिन का समय लगता है. नीलू बताती हैं कि अब यह साड़ी आम उपयोग से हट चुकी है, लेकिन इसका ऐतिहासिक और कलात्मक मूल्य आज भी बहुत गहरा है. उनका परिवार लगातार लोगों को प्रशिक्षित करता है और अब तक दर्जनों कलाकार इससे जुड़ चुके हैं. उनकी कोशिश है कि ये साड़ियां फिर से त्योहारों और उपहारों की पहली पसंद बने.

‘पटना कलम शैली’ को सीख और सहेज रहीं कंचन कुमारी दास

पटना की सीडीए कॉलोनी की रहने वाली कंचन कुमारी दास ने अपने जुनून से एक गुमनाम होती कला को फिर से जिंदा करने की ठानी है. वे एक साल से ‘पटना कलम शैली’ को सीख और सहेज रही हैं. वे कहती हैं, पटना कलम को पटना स्कूल ऑफ पेंटिंग भी कहा जाता है. यह कला 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान बिहार में विकसित और समृद्ध हुआ करता था. मुगल लघु चित्रों के विपरीत, इसने आम लोगों के दैनिक जीवन को दर्शाने पर ध्यान केंद्रित किया. इस कला को पुनर्जीवित करने की कोशिश विगत वर्षों से इंटैक और योर हेरिटेज संस्था की ओर से की जा रही है. कंचन को भैरव लाल दास जैसे विशेषज्ञों से मार्गदर्शन मिला और इस सफर ने उन्हें दिल्ली तक पहुंचाया, जहां उन्होंने अपनी पेंटिंग्स प्रदर्शित की और सराहना पायीं. निफ्ट पटना के समारोह में भी उन्होंने पटना कलम को पेश किया, जिससे उन्हें एक नया आत्मविश्वास मिला. आज उनका सपना है कि पटना कलम फिर से अपनी पहचान और बाजार दोनों पाये. वे चाहती हैं कि आज की पीढ़ी इसे केवल इतिहास न माने, बल्कि अपनी धरोहर की तरह अपनाये.

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Radheshyam Kushwaha
Radheshyam Kushwaha
पत्रकारिता की क्षेत्र में 12 साल का अनुभव है. इस सफर की शुरुआत राज एक्सप्रेस न्यूज पेपर भोपाल से की. यहां से आगे बढ़ते हुए समय जगत, राजस्थान पत्रिका, हिंदुस्तान न्यूज पेपर के बाद वर्तमान में प्रभात खबर के डिजिटल विभाग में बिहार डेस्क पर कार्यरत है. लगातार कुछ अलग और बेहतर करने के साथ हर दिन कुछ न कुछ सीखने की कोशिश करते है. धर्म, राजनीति, अपराध और पॉजिटिव खबरों को पढ़ते लिखते रहते है.

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