Phanishwar Nath Renu: फनीश्वरनाथ रेणु एक ऐसे कथाकार रहे, जिन्होंने न सिर्फ अपने समय की नब्ज को अपने उपन्यासों में बखूबी उतारा, बल्कि अपने समय के आगे की नब्ज को भी टटोला. उनका बहुचर्चित उपन्यास मैला आंचल 1954 में छप कर आता है और इसने उपन्यासों में आंचलिक जीवन को पूरी तरह स्थापित कर दिया. इसलिए रेणु आंचलिक कथाओं के शिल्पकार माने गये. हिन्दी समाज को परिष्कृत करने में उनका साहित्य एक फिल्टर का काम करता रहा है.
फनीश्वरनाथ रेणु की जीवन यात्रा, साहित्यिक रचना संसार व अन्य पहलुओं पर प्रभात खबर के राज्य संपादक (बिहार) ने बात की रेणु जी के साथ सालों साथ रहे बिहार विधान परिषद के उपसभापति प्रो राम बचन राय से. प्रस्तुत है बातचीत के मुख्य अंश.
रेणु जी से पहली मुलाकात कैसे और कैसी रही?
मैं पटना कॉलेज में पढ़ता था. 1968 की बात है. उन दिनों झारखंड क्षेत्र में अकाल पड़ा था, तो दिनमान के लिए अज्ञेय जी को उस क्षेत्र का सर्वे करना था. जिसमें रेणु जी भी उनके साथ थे. मुझे अज्ञेय जी ने संदेशा भेजवाया कि वे पटना आने वाले हैं. उससे पहले मेरा उनसे पत्राचार होता था. वे पटना आये तो रेणु जी के यहां ठहरे हुए थे. तो यहां उनसे पहली मुलाकात हुई. उस समय डाकबंगला चौराहे के पास इंडिया कॉफी हाउस हुआ करता था.
वहां उनके साथ जाना जैसे फिर दिनचर्या बन गयी. उनके आभामंडल से मैं उनका मुरीद हो गया. नये लेखकों को वे प्रोत्साहित करते. वे हमेशा यह जानने की कोशिश करते कि नये लोग क्या लिख-पढ़ रहे हैं. मैं पटना विवि में ही अध्यापक बन गया. कॉफी हाउस में एक खास कोना बन गया था, जिसे रेणु कोना नाम दे दिया गया था. यह 1972-73 की बात थी. कभी-कभी मुझे उनके घर पहुंचने में देर हो जाती तो देखता खिड़की पर खड़े होकर वे अपने लंबे बालों में कंघी कर रहे होते और बाहर रिक्शा देखते रहते.
रेणु के साहित्य में आंचलिकता की जो पहचान है, वह आज के साहित्य में कितनी जीवित लगती है, क्या आज के लेखक उस परंपरा को आगे ले जा पा रहे हैं?
परंपराएं तो विकसित होती रहती हैं, उसका रूप बदलता है, हूबहू परंपराएं उसी रूप में नहीं चलतीं. रेणु जी का परिवेश, पात्र उसी रूप में हों, यह आवश्यक नहीं है, लेकिन आंचलिकता की जो धारा है, यानी गांव के प्रति, कृषि संस्कृति के प्रति वह धारा तो आगे भी चलती रही. रेणु के ही समकालीन थे, राही मासूम रजा, आधा गांव में चरित्र उसी तरह के हैं. रेणु के पात्रों में कोई बनावटीपन नहीं है, और उनके जो पात्र हैं उनसे रेणु घुले-मिले हुए हैं. रेणु का तो पूरा जीवन गांव और शहरों से समान रूप से जुड़ा रहा. धान की हर रोपणी में वे किसानों-मजदूरों के बीच चले जाते थे.
मैला आंचल की बात करें, तो इसके पात्र कैसे गढ़े गये, इस पर कोई चर्चा हुई क्या रेणु जी से कभी?
मैला आंचल को आप सामाजिक और राजनीतिक उपन्यास कह सकते हैं. कई विद्वानों का मानना है कि इस उपन्यास का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए. पहली बार रेणु ने अपने उपन्यास में राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी स्थान दिया. ये कार्यकर्ता हर दल में उपेक्षित थे, लेकिन कालीचरण के पात्र का सृजन कर उन्होंने इसे दिखाया. नेता आगे बढ़ जाते हैं और हाशिये पर धकेल दिये गये इन कार्यकर्ताओं की क्या पीड़ा है, उनके मन में क्या द्वंद्व चल रहा है, इसका पहली बार हिन्दी उपन्यास में चित्रण किया गया. क्योंकि स्वयं उन्होंने अपना जीवन राजनीति से शुरू किया. समाजवादी राजनीति से वे जुड़े हुए थे.
1942 की आजादी की लड़ाई में वे गिरफ्तार हुए थे, और सेंट्रल जेल में रखे गये थे. उनके वे सभी अनुभव कथाकार के रूप में बाद में अभिव्यक्त होते गये.
एक मजेदार घटना रेणु ने सुनायी. मैला आंचल उन्होंने शुरू किया पटना मेडिकल कॉलेज में, जब वे भागलपुर सेंट्रल जेल से निकलने के बाद बीमार होकर लौटे थे. अंग्रेजों की प्रताड़ना के कारण उन्हें खून की उलटियां हो रही थीं, उन्हें टीबी भी हो गयी थी. अस्पताल में एक रात उन्हें सपना आया कि एक आदमी मेरे सिरहाने बैठा है और वो कह रहा है कि क्या तुम मेरी कथा नहीं लिखोगे. वो मैला आंचल का डॉक्टर प्रशांत था, जिसकी कल्पना उन्होंने जेल में यूं ही भूतकथा के रूप में प्रसंग सुनाने के तौर पर कर ली थी. तो जब वे ठीक हुए और अपने सब्जीबाग स्थित क्वार्टर आ गये, तो वहीं उन्होंने इसे लिखना शुरू किया. तो मैला आंचल एक काल्पनिक भूतकथा से शुरू होती है और ग्रामीण जीवन में आकर एक बड़ा आकार ग्रहण कर लेती है.
रेणु जी का अगला उपन्यास परती परिकथा रही, उसे लेकर भी कुछ यादें हों तो बतायें?
उन दिनों रेणु जी किराये का मकान छोड़कर राजेंद्र नगर में आवंटित फ्लैट में आ चुके थे. यहां उन्होंने परती परिकथा लिखना शुरू किया. इसकी चर्चा भी थी कि वे दूसरा उपन्यास लिख रहे हैं. उसी समय पूर्णिया के एक नये-नये साहित्यकार हुए थे, दबंग भी थे, उन्होंने ठीक उनके फ्लैट के नीचे एक क्रेडिल प्रेस खोला, जिससे फट-फट की तेज आवाज आती. रेणु जी की आदत थी कि रात को खाने के आधे घंटे बाद वे तकीये के सहारे पेट के बल लेटकर लिखने बैठते. जिसके बाद रात 12 बजे प्रेस शुरू हो जाता. यह महीनों तक चला. अंत में वे लतिका जी के साथ इलाहाबाद चले गये और वहां सिविल लाइंस में किराये का मकान लेकर परती परिकथा पूरी की.
रेणु जी की राजनीतिक सजगता के कारण उनके साहित्य में तेज आया, आज के समय में आप इसे किस तरह देखते हैं?
वे लेखक के साथ-साथ सोशल एक्टिविस्ट भी थे. रेणु जी हिन्दी में अकेले लेखक हैं, जिन्हें तीन-तीन लड़ाइयों में शामिल होने का मौका मिला. नेपाल में राजशाही के खिलाफ में 1950 में हुई क्रांति में तो बाजाप्ता सैनिक के वेश में वे रिवाल्वर लटकाये हुए मोरचे पर थे. साथ ही, 1942 की अगस्त क्रांति और 1974 की जेपी क्रांति में वे शामिल रहे. 1972 में जो वे चुनाव लड़े, तो वे सत्ता के लिए नहीं लड़े, बल्कि जो जनविरोधी सत्ता थी, उससे प्रतिकात्मक लड़ाई लड़ने के लिए उन्होंने चुनाव का रास्ता अख्तियार किया था. वे निर्दलीय ही लड़े. नाव उनका चुनाव चिन्ह था और नारा था ‘अबकी इस चुनाव में, वोट देंगे नाव में’. अब वो जज्बा नहीं है. आज के लेखकों का जनता के बीच वैसा जुड़ाव नहीं है.
रेणु जी की कहानियों में स्त्री पात्रों की गहरायी और मजबूती दिखती थी, क्या वे अपने समय से आगे सोचने वाले कथाकार थे?
आप देखेंगे, मैला आंचल की लक्ष्मी के कबीरपंथी चरित्र को देखेंगे तो उसमें एक खास किस्म का आत्मविश्वास है. गांव में लोग एक-दूसरे वर्ग से मिलते-जुलते नहीं हैं. लेकिन गांव में जब भंडारा होता है तो वह सबको आमंत्रित करती है, वह महंत, जमींदार को भी चुनौती देती है. प्रशांत के प्रति एक मोह भी है, कि यह लड़का गांव की सेवा कर रहा है, तो वह खड़ी है उसके पीछे. लाल पान की बेगम में एक गृहिणी का धर्म भी उसके भीतर है और दूसरे लोग यदि व्यंग्य करते हैं तो उसका जवाब भी वह देती है. तो इस तरह स्त्री स्वंतत्रता और उसकी मर्यादा का हमेशा पालन उन्होंने अपनी कहानियों में किया है.
रेणु जी देश-दुनिया के किस तरह के साहित्यकारों से प्रभावित लगते थे?
रेणु जी शरतचंद्र को बहुत मानते थे. शरतचंद्र की कथा चेतना रेणु के भीतर अवतरित हुई है. जब वो नवीं-दसवीं में थे, तो उन्होंने शरतचंद्र की कहानियां पढ़ी थीं, वे घर से भागकर शरतचंद्र का घर खोजने हावड़ा चले गये. उस समय तक संभ्रांत घरों में शरतचंद्र की किताब पहुंचती थी, लेकिन शरतचंद्र का प्रवेश नहीं था. महिलाएं छुप-छुपकर उनकी किताबें पढ़ती थीं. तो एक बुजुर्ग से जिनसे रेणु ने शरतचंद्र का घर पूछा था, इतना डांटा कि वे घर लौट आये.
रेणु जी की कोई बात या लेखन दृष्टि आज भी आपको प्रभावित करती है.
वे बोलते कम थे, सुनते ज्यादा थे. वे मांगी हुई सुख संपत्ति की जगह, फकीरी में रहना पसंद करते. जेपी पर लाठीचार्ज किया पुलिस ने, पद्मश्री लौटा दिया. बिहार सरकार का वजीफा मिलता था, उसे लौटा दिया.