बिक्रमगंज. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बिक्रमगंज आगमन को अब लगभग दो महीने हो चुके हैं. लेकिन जिस बधार में उनका ऐतिहासिक कार्यक्रम हुआ था, वहां के किसानों की परेशानियां अब तक खत्म नहीं हो सकी हैं. इन दिनों धान की रोपनी का समय चल रहा है, और किसान मजबूरी में खेतों की दोबारा मेड (मेड़) बनाने में युद्ध स्तर पर जुटे हैं. मठिया गांव निवासी सुदर्शन साह के पुत्र गोपाल साह ने बताया कि वह इस बधार में बटाई पर 25 बीघा जमीन जोतते हैं. यह खेती उनके परिवार में पीढ़ियों से होती रही है, परंतु इस बार की परेशानी अभूतपूर्व है. गोपाल साह के अनुसार, प्रधानमंत्री के कार्यक्रम के कारण खेतों की मेड पूरी तरह क्षतिग्रस्त हो गयी. अब उसे फिर से बनवाने के लिए प्रति बीघा एक हजार रुपये मजदूरी देनी पड़ रही है. खेत मालिकों ने पिछले वर्षों की तरह ही नगदी हिस्सेदारी पर अड़े हैं, जिससे बटाइदारों को न तो कोई राहत मिली और न ही सरकारी सहायता. गोपाल साह कहते हैं अब मैं किसे दोष दूं? किस्मत मानकर खेत संभाल रहा हूं. उनका कहना है कि अधिकारियों ने केवल खेतों की मापी कर स्थान चिह्नित कर दिये, लेकिन असल निर्माण की जिम्मेदारी किसानों पर ही छोड़ दी. धान की खेती के लिए मजबूत मेड जरूरी है, जिससे पानी रुके और फसल सही हो. बिना मेड के रोपनी बेमानी हो जाती है. किसान बताते हैं कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम से पहले ऐसी कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन अब मजदूर जुटाना, मेड बनवाना और समय पर रोपनी कर पाना चुनौती बन गया है. इस विषय में बिक्रमगंज के अनुमंडलाधिकारी प्रभात कुमार ने बताया कि कार्यक्रम स्थल के अधिकतर खेतों में मेड का कार्य मनरेगा मजदूरों के जरिए कराया गया है. लेकिन, किसानों को अपनी सुविधा के अनुसार मेड की ऊंचाई और चौड़ाई के लिए खुद मेहनत करनी होगी. 90 लाख खर्च के बावजूद एजेंसी को भुगतान नहीं 30 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम के लिए बिक्रमगंज के जिस स्थल का चयन हुआ था, वहां अस्थायी सड़क, हेलीपैड, सहित अन्य निर्माण कार्य तेजी से किये गये थे. कार्यक्रम के लिए लगभग 8 करोड़ रुपये का खर्च अनुमानित था. पहले यह जिम्मेदारी एनएचएआइ को दी गयी थी, लेकिन बाद में इसे एनटीपीसी के हवाले कर दिया गया. लेकिन कार्यक्रम के बाद अस्थायी ढांचों को हटवाने की जिम्मेवारी स्थानीय प्रशासन को सौंपी गयी. इस संबंध में अनुमंडलाधिकारी प्रभात कुमार ने बताया कि उनके पदभार ग्रहण करते ही यह कार्य उन्हें सौंपा गया. इसके लिए एक एजेंसी को हायर किया गया, जिसने लगातार 15 दिन तक दिन-रात मेहनत कर स्थल को फिर से खेती योग्य बनाया. एजेंसी के मुताबिक, इस प्रक्रिया में करीब 90 लाख रुपये का खर्च आया. लेकिन तकनीकी कारणों के चलते अब तक उसका भुगतान नहीं हो सका है. भुगतान में देरी से एजेंसी भी असमंजस की स्थिति में है. निष्कर्षत यह है कि कार्यक्रम की भव्यता भले ही चर्चा में रही हो, लेकिन किसानों के खेतों में आयी दुर्गति और अनसुलझे भुगतान का मुद्दा अब भी प्रशासन और शासन के सामने खड़ा है. जमीनी सच्चाई यही है कि किसान बिना किसी मदद के फिर से अपने खेतों को जीवन देने में जुटे गये हैं.
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