जमशेदपुर. यूं तो हर भारतीय पर्व प्रकृति से जुड़ा सांस्कृतिक उत्सव का प्रतीक है. लेकिन, वैशाख में ऐसे लोकपर्व मनाये जाते हैं, जिसमें परंपराओं की महत्ता अनुष्ठान से अधिक है. इन लोकपर्वों को पंजाब में बैसाखी, ओडिशा में पोणा संक्रांति, बंगाल में ‘पोइला बोइशाख’, बिहार में ‘सतुआन’ और मिथिलांचल में ‘जुड़ शीतल’ के नाम से मनाया जाता है. सबसे खास बात यह है कि इन लोकपर्वों में खान-पान में उपयोग में लायी जाने वाली चीजें वैशाख माह की तपिश से भी राहत दिलाती हैं. इन लोकपर्वों को अलग-अलग समाज में मनाने की परंपरा भले ही अलग-अलग है, पर मकसद एक ही है कि किस तरह हम गर्मी से खुद व परिवारजनों का बचाव करेंगे. यह हमारी विविधता में एकता की पहचान ही है, जो किसी न किसी रूप में देश की समृद्ध सांस्कृतिक व विरासत का अहसास कराती है.
ओडिया समाज पोणा संक्रांति के साथ मनायेगा नववर्ष की खुशियां
वैशाख की शुरुआत में ओडिया समाज पोणा संक्रांति के साथ नये वर्ष की खुशियां मनायेगा. इस वर्ष पोणा संक्रांति 14 अप्रैल को है. इस दिन घरों में विशेष प्रकार के शरबत बनते हैं. वैशाख के साथ गर्मी की तपिश शुरू हो जाती है. इस दिन पोणा शरबत व अन्य पकवान कुलदेवता भगवान जगन्नाथ को चढ़ाया जाता है. फिर लोग उसे ग्रहण करते हैं. हर साल उत्कल एसोसिएशन में पोणा संक्रांति का सामूहिक आयोजन किया जाता है. लोग एक-दूसरे से मिलते हैं. नये वर्ष की शुभकामनाएं देते हैं. साथ ही उड़िया साहित्य एवं संस्कृति से जुड़े कार्यक्रमों का आनंद लेते है. अंत में पोणा का सेवन कर घर लौटते हैं.सत्तू, बेल और आम से बनाते हैं पोणा शरबत
सोनारी की मोनालिशा दास ने बताया कि वैशाख में गर्मी ज्यादा होती है. इसलिए उस दिन शरबत पीया जाता है, ताकि शरीर को ठंडक मिले और इसका सेवन कर लोग निरोग रहें. सत्तू, बेल और आम से पोणा शरबत बनाया जाता है. इस दिन नये वर्ष का शुभारंभ भी होता है. समाज के लोग एक-दूसरे मिलते हैं. चूंकि गर्मी का आगाज हो जाता है, तो शरीर को ठंडक देने वाले पेय का सेवन करते हैं.निभायी जाती है ठेकी परंपरा
केबुल टाउन के जयराम दास ने बताया कि पोणा संक्रांति के दिन ठेकी परंपरा निभायी जाती है. इसमें आंगण में तुलसी के पौधे के ऊपर दोनों ओर से लकड़ी से स्टैंड बनाते हुए छेद किया हुआ मिट्टी का कलश टांगा जाता है. इसमें कुश डाल कर ऊपर से पानी डाल कर पूजा की जाती है, ताकि तुलसी के पौधे पर बूंद-बूंद पानी गिरता रहे. गर्मी से लोगों को राहत मिले इसकी कामना तुलसी माता से की जाती है.जुड़ शीतल के साथ मिथिलावासी रखेंगे नये वर्ष में कदम
मिथिला में अलग-अलग रूपों में प्रकृति की पूजा की जाती है. जुड़-शीतल भी मिथिला की संस्कृति से जुड़ा एक अद्भुत पर्व है. इस साल 15 अप्रैल को जुड़ शीतल है. यह पर्व मैथिली पंचांग के मुताबिक वैशाख के प्रथम दिन नूतन वर्ष के अवसर पर मनाया जाता है. यह पर्व प्रेम एवं आस्था का प्रतीक है. इसमें वृद्धजन अपने से छोटे उम्र के लोगों को शुख-शांति एवं दीर्घायु का आशीर्वाद देते हैं. यह साल का एक दिन है, जब घर के चूल्हे को रेस्ट दिया जाता है. मिथिलावासियों के घरों में इस दिन चूल्हा नहीं जलाने की परंपरा है. इस मौके पर प्रकृति से जुड़ते हुए सत्तू और आम के टिकोला की चटनी को खाया जाता है. इस वजह से इस पर्व को कोई सतुआनी, तो कोई बसिया पर्व भी कहते हैं.पुत्र से पितर तक का रखा जाता है ख्याल
सिदगोड़ा के धर्मेश कुमार झा ने बताया कि इस पर्व के मौके पर सबसे पहले तुलसी के पेड़ में नियमित जल प्रदान करने हेतु घड़ा बांधा जाता है. इसके पीछे मान्यता है कि ऐसा करने से पितरों की प्यास बुझती है. सुबह माताएं अपने बच्चों के सिर पर पानी का थापा देती हैं, माना जाता है कि इससे पूरे साल उसमें शीतलता बनी रहेगी. वहीं, लोग अपने पूर्वज को याद करते हुए उनके नाम का घड़ा या सुराही में पानी भर कर दान करते हैं. ऐसा माना जाता है कि उसे घड़े से जो भी जल पीते हैं, उससे पूर्वजों को भी पानी मिलता है. मतलब इस पर्व में पुत्र से पितर तक के अंदर शीतलता बनी रहे, इसकी कामना की जाती है.पेड़-पौधों में डालते हैं जल
सिदगोड़ा की निशा झा ने बताया कि इस दिन संध्या को घर के सभी लोग पेड़-पौधों में जल डालते हैं, जिससे गर्मी के मौसम में भी पेड़-पौधे हरे भरे रहें और वे सूखें नहीं. लोगों का मानना है कि पेड़-पौधे भी उनके परिवार का हिस्सा हैं और वह भी हमारी रक्षा करते हैं. वहीं, इस दिन घरों में चूल्हा नहीं जलाने की परंपरा होने से गर्मी में जल्दी खराब नहीं होने वाले खाद्य पदार्थ दाल पुरी और बेसन बड़ी से कढ़ी, आम की चटनी पहले ही बनाकर रख लेते हैं. यही खाद्य पदार्थ जुड़ शीतल के दिन सब खाते हैं.सतुआन बिहार की पुरानी परंपरा
बिहार, विशेषकर भोजपुरी क्षेत्र में वैशाख की शुरुआत में सतुआन मनाने की परंपरा है. इस वर्ष 14 अप्रैल को सतुआन है. यही मैथिली भाषी क्षेत्र में जुड़ शीतल के नाम से प्रचलित है. इसमें आम की चटनी व सत्तू को घोलकर पहले सूर्य देव को चढ़ाया जाता है. फिर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है. सत्तू का स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्व है. सतुआन के पीने के कई फायदे भी हैं. कहा जाता है कि अब मौसम तेजी से गर्म होगा, आने वाले दिनों में नौतपा होने वाला है, जब खेतों की मिट्टी बिल्कुल सूखकर कड़ी हो जायेगी. मनुष्य जब गर्मी से त्रस्त हो जायेगा, तो ऐसे में सत्तू ही एक ऐसा खाद्य पदार्थ है, जो शीतलता दे पायेगा.गर्मी में रामबाण है सत्तू
डिमना की सीता सिंह ने बताया कि सतुआन, महज एक लोकपर्व नहीं है. हर किसी का संबंध हमारी संस्कृति, धर्म और खानपान से जुड़ा है. चूंकि, वैशाख आते ही गर्मी अधिक होती है. ऐसे में इस समय सत्तू का सेवन शेष लाभदायक है, जो सतुआन में उपयोग में लागया जाता है. इसलिए इसे गर्मी का रामबाण कहा जाता है. इसमें उपयोग में लाये जाने वाले सत्तू में मिलाये जाने वाले सात प्रकार के अनाज चना, जौ, मक्का, ज्वार, बाजरा, जनेरा व मड़ुआ शरीर को गर्मी से राहत दिलाने के साथ ऊर्जावान बनाये रखने में मदद करता है. क्योंकि इन फूड में कई मिनरल पाये जाते हैं, जो पौष्टिक होने के साथ शरीर के लिए उत्तम होते हैं.गर्मी के आ जाने की घोषणा करता है सतुआन
एनएच 33 के पास रहनेवाली अंजना सिंह ने बताया कि उत्तर भारत की लोक संस्कृति में यह प्रकृति से जुड़ाव का पर्व है. आज से कुछ दशक पूर्व तो सत्तू को गठरी में बांधकर लंबी यात्रा पर ले जाया जाता था. ठेंठ देहातों में यह अभी भी जीवित है. सतुआन पर्व मेष संक्रांति के दिन पूर्वी यूपी-बिहार-झारखंड में खासकर मनाया जाता है, जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है. यह आमतौर पर 14 अप्रैल को ही होता है. यह पर्व ऋतु परिवर्तन का प्रतीक भी माना जाता है, जो गर्मी के आ जाने की घोषणा करता है.बंगाली समुदाय मनायेगा पोइला बोइशाख
बांग्ला कैलेंडर के अनुसार, साल का पहला दिन पोइला बोइशाख है. यह दिन बंगाली समुदाय के लिए विशेष महत्व रखता है. सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में रह रहे बंग समुदाय के लोग इस दिन को अपनी परंपरा संस्कृति में रमते हुए मनाते हैं. इस वर्ष 15 अप्रैल को पोइला वैशाख है. सुबह शंख ध्वनि के साथ घरों में पूजा-अर्चना, मंदिर दर्शन, दोपहर में परिवार-परिजनों के साथ भोजन और शाम में बांग्ला सांस्कृतिक अनुष्ठान इस दिन को खास बनाता है. इन्हीं सबों के बीच समुदाय के लोग बांग्ला नववर्ष का स्वागत भी करते हैं.घर में बनाते हैं पारंपरिक खाना
भालुबासा की नृत्यांगना सोनाली चटर्जी ने बताया कि बंग समुदाय में हर साल पारंपरिक रूप से पोइला बोइशाख मनाया जाता है. घर में पारंपरिक खाना बनता है. शाम में परिवार के सभी सदस्य बांग्ला सांस्कृतिक कार्यक्रम का आनंद उठाते हैं. उस दिन केले पत्ते में खाना खाने की कोशिश करते हैं. क्योंकि, यह बांग्ला संस्कृति से जुड़ा है. नये वस्त्र पहनते हैं. सबके घरों में उसी दिन विशेष पकवान बनते हैं. दिन की शुरुआत लोग मंदिर जाकर करते हैं.फिजी में बंगाली समुदाय के लोग मिलकर मनाते हैं पोइला बोइशाख
अनिंदिता आचार्या पिछले कई वर्षों से फिजी में रह रही हैं. अनिंदिता का मायका साकची में है. उन्होंने बताया कि फिजी में रह रहे बंगाली समाज के लोग एक साथ पोइला बोइशाख मनाते हैं. इसकी तैयारी पहले ही कर लेते हैं. व्यवसायी अपने घर में हाल खाता का पूजन करते हैं. पारंपरिक खाना बनता है. इलिश मछली से लेकर मिष्टि दोई सभी कुछ यहां मिल जाता है. कीमत थोड़ी महंगी है. लेकिन, सभी के जिम्मे में होती है. बांग्ला सांस्कृतिक अनुष्ठान भी होता है, जिसमें सभी की हिस्सेदारी होती है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है