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तारापीठ में मां तारा भी रथ से निकलीं नगर भ्रमण करने

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ श्रीमंदिर से अपनी मौसी के घर चले जाते हैं. इसी दिन तारापीठ में भी मां तारा अपने रथ पर बैठ कर नगर भ्रमण करती हैं.

बीरभूम के तारापीठ में मां तारा की दिव्य रथयात्रा के दौरान उमड़े असंख्य भक्त बीरभूम. रथयात्रा को देखते हुए शुक्रवार को जिले के तारापीठ में भी तारापीठ मंदिर कमेटी की ओर से मां तारा की भव्य रथयात्रा निकाली गयी. इस दिन रथ पर मां तारा की एक झलक पाने को हजारों भक्तगण मौजूद थे. जगन्नाथ की रथयात्रा के दिन ही बीरभूम जिले के तारापीठ मंदिर से जगज्जननी मां तारा की रथयात्रा भी निकलती है. उसी उल्लास के साथ मां तारा के लाखों भक्त इस रथयात्रा में शामिल होकर पुण्य केे भागी बनते हैं. आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ श्रीमंदिर से अपनी मौसी के घर चले जाते हैं. इसी दिन तारापीठ में भी मां तारा अपने रथ पर बैठ कर नगर भ्रमण करती हैं. कहते हैं, तारापीठ के प्रसिद्ध संत आनंदनाथ द्वितीय ने तारापीठ के रथ की शुरुआत की थी. उस समय पीतल का रथ बनाया गया था. जिसे आज भी संभाल कर रखा गया है. रथ यात्रा पर हर साल मां तारा को इसी पीतल के रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकाला जाता हैं. इस दिन मुख्य मंदिर में मां की विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है.आरती उस पूजा का विशेष अंग होता है. इस दिन मां की आरती अन्य दिनों की अपेक्षा थोड़ा अधिक समय तक की जाती है. फिर मां को राज वेश पहनाया जाता है. इस बीच पीतल के रथ को भी खूबसूरती से सजाया जाता है और मंदिर के बाहर रखा जाता है.आरती के अंत में राजसी वस्त्र धारण कर मां तारा को उस रथ में बिठाया जाता है. रथ बहुत बड़ा नहीं है. अत: मां तारा पूरे रथ पर विराजमान रहती है. परिचारक रथ पर घेर लेते हैं. उनके पास बतासा और मंडा से भरी टोकरी मौजूद रहती है. दोनों ही माता के प्रसाद हैं. रथ के चलने के दौरान भक्तों को प्रसाद वितरण किया जाता है.सब उत्सुकता से प्रसाद ग्रहण करते है. मान्यता है कि देवी के इस विशेष प्रसाद को ग्रहण करने से पुनर्जन्म नहीं होता है. इसलिए हर साल मां तारा की रथ यात्रा में भाग लेने के लिए दूर दराज से भी श्रद्धालु तारापीठ आते हैं. एक ओर भगवान जगन्नाथ मौसी के घर की ओर बढ़ते हैं. और वही देवी मां तारा के रूप जगरनाथ को नगर में विचरण कराया जाता है. जिन लोगों ने दोनों दृश्य देखे वे भाग्यशाली होते हैं.

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