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सियासत के केंद्र में बंगाली श्रमिक

पश्चिम बंगाल में चुनाव का बिगुल भले ही अभी आधिकारिक रूप से न बजा हो, लेकिन राजनीतिक तैयारियां पूरे जोरों पर हैं.

कोलकाता

पश्चिम बंगाल में चुनाव का बिगुल भले ही अभी आधिकारिक रूप से न बजा हो, लेकिन राजनीतिक तैयारियां पूरे जोरों पर हैं. दिलचस्प यह है कि इस बार की राजनीति भाषा, धर्म या रोजगार जैसे पारंपरिक मुद्दों से आगे बढ़कर उस वर्ग पर केंद्रित हो रही है, जो लंबे समय से अनदेखा रहा, प्रवासी श्रमिक. विशेषकर वे लोग जो बंगाल से बाहर रोजी-रोटी की तलाश में जाते हैं और जिनकी मातृभाषा बांग्ला है, अब चुनावी विमर्श के केंद्र में हैं. हाल की घटनाओं को देखें तो यह स्पष्ट है कि यह मुद्दा अब मानवीय पीड़ा नहीं, बल्कि एक चुनावी अवसर के रूप में देखा जा रहा है. बीते कुछ महीनों में देश के विभिन्न राज्यों से कई घटनाएं सामने आयीं, जिनमें पश्चिम बंगाल के श्रमिकों को अवैध बांग्लादेशी बताकर हिरासत में लिया गया या उन्हें देश से बाहर भेजने की कोशिश की गयी. मुंबई, राजस्थान, ओडिशा, असम और दिल्ली, इन सभी स्थानों पर बंगाल से गये लोगों के साथ ऐसा व्यवहार होने का आरोप लगा. मुंबई की एक घटना में सात श्रमिकों को सीमा पर भेजने की तैयारी की गयी थी. पश्चिम बंगाल सरकार के हस्तक्षेप के बाद ही उन्हें भारत वापस लाया जा सका. राजस्थान के तिजारा क्षेत्र में सैकड़ों मजदूरों को कथित तौर पर बंधक बना लिया गया, जबकि उनके पास भारतीय नागरिकता के दस्तावेज थे. ओडिशा में भी 200 से अधिक बांग्ला भाषी लोगों को हिरासत में लिया गया.

भाजपा का प्रतिवाद : राष्ट्रीय सुरक्षा का प्रश्न

भाजपा इन आरोपों को सिरे से खारिज करती है. उसका तर्क है कि यह कार्रवाई भाषा या क्षेत्र के आधार पर नहीं, बल्कि अवैध घुसपैठ के विरुद्ध है. भाजपा नेताओं का कहना है कि इन घटनाओं को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि अवैध नागरिकों को संरक्षण मिल सके. पार्टी के नेताओं ने दावा किया कि ओडिशा में जिन लोगों को हिरासत में लिया गया, उनमें से अधिकतर के पास फर्जी दस्तावेज थे. विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी ने आरोप लगाया कि तृणमूल कांग्रेस रोहिंग्या मुसलमानों और बांग्लादेशी घुसपैठियों को बंगाली नागरिक के रूप में प्रस्तुत कर उन्हें बचा रही है. भाजपा इस पूरी बहस को देश की सुरक्षा, नागरिकता की शुद्धता और अवैध प्रवास के विरुद्ध संघर्ष के रूप में प्रचारित कर रही है.

बंगाली अस्मिता की राजनीति

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इन घटनाओं को बंगाली अस्मिता के अपमान के रूप में चित्रित किया है. उन्होंने सार्वजनिक रूप से चुनौती दी कि अब वे अधिकतर बांग्ला में ही बोलेंगी और कोई यदि हिम्मत रखता है तो उन्हें हिरासत में भेजकर दिखाये. तृणमूल कांग्रेस इन घटनाओं को केंद्र सरकार की सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिरचना के हिस्से के रूप में देख रही है. उनका आरोप है कि यह सब आगामी चुनावों के पहले मतदाता सूची से बंगाली नामों को हटाने की योजना का अंग है. टीएमसी का यह नैरेटिव बंगाल के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को छूता है. पार्टी इसे दिल्ली बनाम बंगाल, बाहरी बनाम स्थानीय और अस्मिता बनाम दमन की लड़ाई के रूप में पेश कर रही है.

श्रमिक मुद्दा या विधानसभा की चुनावी बिसात ?

यदि यह केवल प्रशासनिक प्रक्रिया होती, तो इसे सुधार की दिशा में ले जाया जा सकता था, लेकिन अब यह विवाद मतदाता पहचान, मतदाता सूची में नाम दर्ज करने और वोटों के राजनीतिक संतुलन से जुड़ चुका है. तृणमूल कांग्रेस का दावा है कि इन घटनाओं के पीछे मतदाता सूची को प्रभावित करने की साजिश है. वहीं भाजपा इसे लोकतांत्रिक शुद्धता की आवश्यकता बताती है. परिणामस्वरूप, प्रवासी मजदूर अब केवल नागरिक नहीं रहे, वे मतदाता गणित का हिस्सा बन चुके हैं. सियासत की जड़ में है

आर्थिक पहलू भी

बंगाल से बाहर काम करने वाले श्रमिकों की संख्या लाखों में है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुद कहा कि राज्य के बाहर लगभग 22 लाख मज़दूर कार्यरत हैं. ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत असंगठित श्रमिकों की संख्या इससे भी अधिक है. भाजपा इसे राज्य की आर्थिक विफलता के रूप में प्रस्तुत करती है. उसका कहना है कि यदि राज्य में उद्योग और अवसर होते, तो लोगों को बाहर जाने की आवश्यकता ही न होती. यह दलील भाजपा के लिए एक प्रभावशाली औजार बन गयी है, जिससे वह टीएमसी के शासन पर आर्थिक सवाल खड़े करती है.

आगे की राह

2026 के विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ते हुए यह स्पष्ट हो गया है कि प्रवासी श्रमिकों का मुद्दा एक परदे के पीछे की लड़ाई नहीं रह गयी है. वह अब मंच पर भाषणों, जुलूसों, और घोषणाओं के केंद्र में. तृणमूल कांग्रेस इसे पहचान, सम्मान और क्षेत्रीय गौरव की रक्षा के रूप में प्रस्तुत कर रही है, जबकि भाजपा इसे सुरक्षा, वैधानिकता और राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में रख रही है. विडंबना यह है कि जिन श्रमिकों की दुर्दशा पर यह सियासी बिसात बिछ रही है, वे अक्सर चुनाव के दिन मतदान नहीं कर पाते. वे अपने गांवों से दूर, किसी निर्माण स्थल या कारखाने में जीवन चला रहे होते हैं. उनकी गिनती होती है, उनकी चिंता नहीं. बंगाली प्रवासी मजदूरों का यह मुद्दा अब केवल भाषा, पहचान या मानवाधिकार का प्रश्न नहीं है. यह 2026 के चुनाव की सबसे जटिल, बहुपरतीय और संवेदनशील पटकथा बन चुका है.

डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है

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