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नशीले पदार्थ के मामलों में लापरवाही पर कोर्ट सख्त

हाइकोर्ट ने इसे केवल लापरवाही नहीं, बल्कि साजिश और 'जानबूझकर भूल' करार दिया है.

कोलकाता. मादक पदार्थ से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान पुलिसकर्मियों की लापरवाही पर कलकत्ता हाइकोर्ट ने कड़ी नाराजगी जतायी है. करीब तीन वर्षों से सामने आ रहे ऐसे मामलों में पुलिस अधिकारी अक्सर गिरफ्तार किये गये आरोपियों की पहचान करने में असफल रहे हैं. हाइकोर्ट ने इसे केवल लापरवाही नहीं, बल्कि साजिश और ””जानबूझकर भूल”” करार दिया है. हाइकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जयमाल्य बागची की खंडपीठ ने वर्ष 2023 में इस पर सख्त रुख अपनाते हुए राज्य पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) और कोलकाता पुलिस कमिश्नर को निर्देश दिया था कि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं को हर हाल में रोका जाये. साथ ही सभी थानों को चेतावनी दी गयी थी कि दोषी पाये गये पुलिसकर्मियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी. पुलिसकर्मियों को भेजा जायेगा ट्रेनिंग स्कूल : इस निर्देश के बाद राज्य पुलिस ने जिलावार मामलों की सूची बनाकर दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की रिपोर्ट हाइकोर्ट को सौंपी. रिपोर्ट के मुताबिक अब तक सात मामलों में 17 पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की गयी है. इनमें विभागीय जांच के साथ-साथ एक-एक पदोन्नति भी रोक दी गयी है. हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति अजय कुमार मुखर्जी ने अब आदेश दिया है कि ऐसे सभी पुलिसकर्मियों को कम से कम छह महीने के लिए पुलिस प्रशिक्षण स्कूल भेजा जाये, जहां उन्हें मादक पदार्थ से जुड़े मामलों की जांच और प्रक्रिया का विशेष प्रशिक्षण दिया जायेगा. कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि प्रशिक्षण के बाद परीक्षा में सफल होने पर ही उन्हें फिर से ऐसे मामलों में तलाशी या जांच की जिम्मेदारी सौंपी जायेगी. अभियोजन पक्ष की भूमिका पर भी सवाल : हालांकि अदालत ने पुलिस की भूमिका पर सख्ती दिखायी है, लेकिन हाईकोर्ट में कार्यरत कई सरकारी वकीलों ने इन मामलों में जिला अदालतों में अभियोजन पक्ष की भूमिका पर भी सवाल उठाया है. उनके अनुसार, मादक पदार्थ मामलों में अक्सर मुकदमे की सुनवाई 10 से 15 साल बाद होती है. तब तक आरोपी का हुलिया बदल जाता है और जांच अधिकारी का तबादला भी कई बार हो चुका होता है. ऐसी स्थिति में पहचान में चूक हो सकती है, लेकिन अभियोजकों की जिम्मेदारी है कि वे सुनवाई से पहले गवाहों को घटनाक्रम ठीक से याद दिलायें. इन तर्कों को ध्यान में रखते हुए कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने सुझाव दिया है कि जिला अदालतों में तैनात सरकारी अभियोजकों की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए, ताकि पूरे तंत्र की जवाबदेही तय की जा सके.

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