Bihar Politics: पटना. बिहार में बहुबल पर क्षेत्रीय क्षत्रप बने नेताओं के इस बार न तो किले सेफ हैं, न उम्मीदवारी मजबूत दिख रही है. ऐसे कई नेता इस बार के विधानसभा चुनाव में अपनी विरासत बचाने के लिए जद्दोजहद करते दिख रहे हैं. बिहार की सियासत में वक्त के साथ बाहुबल असर और दबदबा दोनों ही कम होता जा रहा है. अधिकतर बाहुबलि इस बार के चुनावी रण से बाहर नजर आ रहे हैं. राजनीतक दल भी अब टिकट देने से परहेज कर रहे हैं. पिछले चुनाव में पप्पू यादव को आरजेडी और कांग्रेस दोनों ने प्रत्याशी नहीं बनाया, उसकी वजह भले ही कुछ और रही हो, लेकिन राजनीतक असर कम होना भी एक कारण रहा.
मदद से मुकाम तक
इतिहास पर नजर डालें तो साठ के दशक में बिहार की राजनीति में स्थापित नेताओं ने ही बाहुबली का प्रयोग अपनी चुनावी जीत के लिए करना शुरू किया. बाद में बाहुबलियों ने उन नेताओं के लिए काम करने के बदले खुद ही सियासत में कदम रख दिया. नब्बे के दशक आते-आते बिहार की राजनीति में बाहुबली एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन गये. ये वो कालखंड है, जब बिहार में आनंद मोहन से लेकर अनंत सिह, शहाबुद्दीन, राजबल्लभ यादव, प्रभानाथ सिंह, रामा सिंह, मुन्ना शुक्ला, सुनील पांडेय और पप्पू यादव जैसे बाहुबलियों की राजनीति में सियासी दबदबा था.
सियासत बदली तो कम होता गया प्रभाव
नीतीश कुमार की सरकार बनने के बाद बिहार में सियासी हवा बदली और बाहुबलियों पर कानूनी शिकंजा कसा और कई ऐसे नेता जेल गए. इस दौरान बाहुबली नेताओं में परिवारवाद का चलन बढ़ गया. वक्त के बदलन के साथ ही बाहुबलियों की राजनीति भी बदलने लगी. उन्होंने अपनी सियासी विरासत अपने परिवार को सौंप दी, लेकिन इस बार के चुनाव के सियासी चर्चाओं से बाहर बाहुबली नजर आ रहे हैं. बाहुबलियों का जरूर अपने क्षेत्र में नेटवर्क होता है, जो अब टूट रहा है. देश की सियासत भी बदली है, जिसके चलते बाहुबली नेताओं की सियासत कमजोर पड़ी है. इसीलिए न दावेदारी मजबूत है और न ही टिकट कन्फर्म दिख रहा.
क्षत्रपों की राजनीतिक भविष्य पर संकट
राजनीतिक विश्लेषकों की माने तो पिछले कुछ वर्षों से बाहुबलियों का राजनीतिक तेवर राजनेताओं के समानांतर हो गया है. जैसे अगर कोई बाहुबली जेल जाता है तो उसकी जगह राजनीति में उसकी पत्नी या बेटा आता है. अनंत सिंह, सूरजभान, आनंद मोहन, सुरेंद्र यादव सरीखे बाहुबली में देखा जा सकता है. ये बाहुबली प्रत्यक्ष तौर पर चुनावी राजनीति में आने के बाद राजनेता की तरह ही वंशवाद को प्रश्रय देते हैं, लेकिन बदले हुए दौर में उनके लिए अपने सियासी दबदबे को बनाए रखना आसान नहीं है. आनंद मोहन, अनंत सिंह, शहाबुद्दीन और सूरजभाव जैसे बड़े क्षत्रप की राजनीतिक भविष्य तय नहीं है. वो आज अपनी विरासत बचाने के लिए जद्दोजहद करते दिख रहे हैं.
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