शशिभूषण कुंवर/ Bihar Politics: बिहार की सियासत में यह सवाल तेजी से गूंज रहा है कि क्या कांग्रेस एक बार फिर अपने मूल वोट बैंक यानी अनुसूचित जाति समुदाय के बीच पैठ बना पायेगी या यह भी एक और सियासी प्रयोग होगा जिसकी परिणति 2020 की हार की पुनरावृत्ति में ही होगी? पिछली बार (2020) कांग्रेस को महागठबंधन के तहत 70 सीटें मिली थीं जिनमें 13 अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित थीं. लेकिन ये सीटें कांग्रेस के लिए ज्यादा कुछ लेकर नहीं आईं. पार्टी आरक्षित 13 सीटों में महज पांच पर ही जीत दर्ज कर सकी. 65 प्रतिशत से ज्यादा दलित सीटों पर कांग्रेस चुनाव हार गयी. अब जबकि 2025 की रणभेरी बज चुकी है. कांग्रेस एक नयी रणनीति के साथ मैदान में उतर रही है. इस बार केंद्र में दलित नेतृत्व है. राजनीति में प्रतीकों की उम्र बहुत छोटी होती है. अब वक्त है कि कांग्रेस इस प्रतीक को परिणाम में बदले नहीं तो दलित मतदाता सिर्फ ताली नहीं, सवाल भी करेगा.
दलित अध्यक्ष: प्रतीक से परे जाने की कोशिश
कांग्रेस ने इस बार अपना प्रदेश अध्यक्ष राजेश राम को बनाया है. एक अनुभवी नेता, जो खुद 2020 में कुटुम्बा सीट से जीते थे. यह नियुक्ति सिर्फ सामाजिक संतुलन नहीं बल्कि पार्टी के खोते जनाधार को पुनर्जीवित करने की एक राजनीतिक चाल है. कांग्रेस के जानकार सूत्रों की मानें तो यह कदम सिर्फ चेहरा बदलने का नहीं है. जिलास्तर पर संगठन में भी दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदायों की भागीदारी बढ़ाई गयी है. सवाल यह है कि क्या इस सामाजिक इंजीनियरिंग से वोटों की केमिस्ट्री बदलेगी?
वोट बैंक की तलाश या खोया भरोसा?
एक समय था जब दलित वोट कांग्रेस की राजनीति की रीढ़ माने जाते थे लेकिन मंडल आंदोलन और बाद में लालू-नीतीश युग के उभार ने इस समीकरण को तहस-नहस कर दिया. आज का दलित मतदाता पहले से ज्यादा राजनीतिक रूप से जागरूक, विकल्पों से लैस और संगठित है. 2020 का आंकड़ा गवाह है कि कांग्रेस की पकड़ अब इस समुदाय में कमजोर हो चुकी है. सवाल है क्या यह पकड़ अब भी लौट सकती है?
2020 की जातीय गणित : किसे मिला, कौन छूटा?
वर्ष 2020 में कांग्रेस ने जिन 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, वहां टिकट वितरण में सवर्ण वर्चस्व साफ दिखा. इसमें कुल 34 सीटों पर सवर्ण प्रत्याशियों में 11 सीटों पर भूमिहार, 10 सीटों पर राजपूत, नौ विधानसभा क्षेत्रों में ब्राह्मण और चार विधानसभा क्षेत्रों में कायस्थ प्रत्याशियों को उतारा गया. सीटों के बंटवारे में 10 सीटें मुस्लिम समुदाय के प्रत्याशियों को तो 10 सीटें ओबीसी को मिली. ओबीसी-इबीसी में पांच यादव, दो कुर्मी, दो वैश्य और एक कुशवाहा प्रत्याशी शामिल ते.
चुनावी गणित 2025: क्या बदलेगी तस्वीर?
अब जब कांग्रेस की प्रदेश कमान दलित नेता के हाथ में है, पार्टी का पूरा फोकस अनुसूचित जातियों में नये भरोसे की फसल बोने पर है. इसके लिए चार प्रमुख स्तरों पर काम हो रहा है जिसमें टिकट वितरण में सामाजिक संतुलन बने, जिलास्तरीय नेतृत्व में विविधता, जमीनी संपर्क अभियान जिससे दलित बस्तियों में पैठ बने और मुद्दों पर आधारित घोषणापत्र में शिक्षा, आरक्षण, सुरक्षा और प्रतिनिधित्व को शामिल किया जा सकता है. कांग्रेस जानती है कि 2025 में महज महागठबंधन के भरोसे चलना काफी नहीं होगा, उसे अपना आधार खुद तैयार करना होगा. इसका संकेत खुदा पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी ने बिहार को अपना चुनावी फोकस बनाया है. जानकारों का कहना है कि कांग्रेस को अगर अपने राजनीतिक पुनर्जीवन की उम्मीद है तो उसे 2025 में सिर्फ ‘दिखावे की दलित राजनीति’ नहीं बल्कि विश्वसनीय नेतृत्व, नीतिगत प्रतिबद्धता और जमीनी असर दिखाना होगा.