Pipra, Supaul Assembly constituency: राजनीतिक विविधता के लिए पहचाने जाने वाले इस क्षेत्र में शुरुआती वर्षों में वामपंथ और कांग्रेस की मजबूत पकड़ रही. पहले ही चुनाव में CPI के तुलसी राम ने जीत का परचम लहराया, जबकि 1980 और 1985 में कांग्रेस के नंदलाल चौधरी ने लगातार दो बार जीत दर्ज कर यह साबित कर दिया कि कांग्रेस का जनाधार तब कितना व्यापक था. इस दौर में पिपरा, समाजवादी और राष्ट्रवादी राजनीति के दो ध्रुवों के बीच झूलता रहा. लेकिन 90 का दशक इस क्षेत्र के लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ. जनता दल के शहदेव पासवान ने 1990 और 1995 में लगातार दो बार जीत दर्ज कर सियासी पलड़ा अपनी ओर झुका लिया. इसके बाद वर्ष 2000 में राष्ट्रीय जनता दल ने दस्तक दी और सुरेंद्र कुमार चंद्रा के रूप में सीट पर कब्जा जमाया। पिपरा की राजनीति इस वक्त अपनी सामाजिक संरचना के अनुरूप बदलाव की राह पर चल चुकी थी.
2005 में हुआ बदलाव
राजनीतिक संतुलन का अगला बड़ा बदलाव 2005 में देखने को मिला, जब भाजपा के कृष्णा नंदन पासवान ने फरवरी और अक्टूबर, दोनों चुनावों में जीत दर्ज कर भाजपा की पकड़ मजबूत की. यही नहीं, 2010 में जनता दल यूनाइटेड के अवधेश प्रसाद कुशवाहा ने जीत के साथ यह साबित किया कि यह सीट अब एनडीए (NDA) के प्रभाव क्षेत्र में आ चुकी है.
भाजपा की जड़ें हुई मजबूत
2015 और 2020 के चुनावों ने इस धारणा को और पुख्ता कर दिया. भाजपा के श्यामबाबू प्रसाद यादव ने दोनों बार जीत दर्ज की और 2020 में CPI (M) के राजमंगल प्रसाद को 8,177 मतों से हराकर क्षेत्र में भाजपा की सियासी जड़ें और गहरी कर दीं. इस चुनाव में मतदान प्रतिशत 44.18% रहा.
क्या रहा है मुद्दा
पिपरा की सामाजिक बनावट इस बदलती राजनीति का अहम कारण रही है. अनुसूचित जातियों की आबादी यहां 15 से 18 फीसदी के बीच है, जबकि मुस्लिम मतदाता लगभग 12 प्रतिशत हैं. 90% से अधिक ग्रामीण जनसंख्या वाले इस क्षेत्र में सड़क, बिजली, कृषि और शिक्षा जैसे मुद्दे ही चुनावों के केंद्र में रहे हैं. राजनीतिक दलों ने इन सामाजिक वर्गों के बीच गठबंधन की राजनीति और विकास के वादों से जन समर्थन हासिल करने की रणनीति अपनाई.
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बदलता रहा पिपरा का राजनीतिक समन्वय
आज पिपरा विधानसभा क्षेत्र महज एक चुनावी सीट नहीं, बल्कि बिहार की बदलती राजनीतिक प्रवृत्तियों का जीवंत उदाहरण बन चुका है. जहां एक ओर वामपंथ और कांग्रेस की विरासत है, वहीं दूसरी ओर भाजपा-जदयू की हालिया एकछत्र सत्ता. वर्ष 2005 से लेकर अब तक इस क्षेत्र ने भाजपा और जदयू को लगातार मौका दिया है, और यही इसे बिहार के राजनीतिक मानचित्र पर एक मजबूत एनडीए गढ़ के रूप में स्थापित करता है.