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Aurangabad News : जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे किसान

अब तक 1.86 प्रतिशत ही गिराया गया धान का बिचड़ा, उपयुक्त समय पर बिचड़ा नहीं लगाने से धान की उपज होती है प्रभावित

औरंगाबाद/कुटुंबा. बरसात का प्रथम चरण आसाढ़ महीना चल रहा है. मौसम का हाल बदहाल है. बारिश हो नहीं रही है. आसमान से अंगारे बरस रहे है. सूर्य के तपन आम जन जीवन को अस्त व्यस्त कर रखा है. ऐसी स्थिति में किसान समझ नहीं पाते कि उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं. हाल के दिनों में मौसम का ऐसा ही रुख रहा है. केवीके प्रधान वैज्ञानिक डॉ विनय कुमार मंडल ने बताया कि तापमान वृद्धि से फसलों का विकास चक्र बाधित हो रहा है, जिसके चलते गेहूं की उपज में कमी आयी है. सूखे ने वर्षा आधारित खेती को अधिक प्रभावित किया है. भूजल स्तर में कमी और नदियों के अनियमित प्रवाह ने सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता को सीमित कर दिया है. मिट्टी की उर्वरता पर भी जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है. गर्म मौसम में टिड्डियों और अन्य कीटों का प्रकोप बढ़ने से फसलों को भारी नुकसान हो रहा है. इन चुनौतियों ने किसानों की आय को बुरी तरह प्रभावित किया है. उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए कम अवधि वाली फसलों को अपनाने की जरूरत है. यह अनियमित मानसून के प्रभाव को कम करती हैं. वर्षा जल संचयन, ड्रिप सिंचाई, चेक डैम और तालाब निर्माण जैसे जल प्रबंधन उपायों से पानी का कुशल उपयोग संभव है. इससे भूजल दोहन को नियंत्रित किया जा सकता है. मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिए जैविक खाद, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, फसल चक्र और मिश्रित खेती को बढ़ावा देना जरूरी है. एकल फसल पर निर्भरता कम कर बागवानी, मछली पालन और पशुपालन जैसे वैकल्पिक आय स्रोत अपनाने की जरूरत है. मौसम पूर्वानुमान ऐप्स, ड्रोन और सेंसर आधारित तकनीकों से संसाधन प्रबंधन में सहायता मिल सकती है.

इन कारणों से आयी अनिश्चिता

मौसम वैज्ञानिक डॉ अनूप कुमार चौबे ने बताया कि जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से मानवीय गतिविधियों के कारण हो रहा है. ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कोयला, तेल, गैस आदि के जलने, उद्योगों, वाहनों और कृषि से होती हैं. ये गैसें पृथ्वी के वातावरण में गर्मी को रोकती हैं, जिससे तापमान बढ़ता है. वनों की कटाई प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ता है. औद्योगीकरण और शहरीकरण से भी ग्रीन हाउस गैसें बढ़ रही हैं. इसके अलावा कुछ प्राकृतिक प्राकृतिक कारक भी हैं, पर मानवीय कारक कहीं अधिक जिम्मेवार हैं.

1.72 लाख हेक्टेयर में भूमि में धान की खेती का लक्ष्य

जिला कृषि कार्यालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार जिले के विभिन्न प्रखंडो में इस बार 1.72 लाख हेक्टेयर में भूमि में धान की खेती का लक्ष्य निर्धारित है. इसके लिए 17.200 हजार हेक्टेयर भूमि में बिचड़ा गिराया जाना है. साधन संपन्न किसानो ने मात्र 1.86 प्रतिशत नर्सरी लगायी है. कृषि विशेषज्ञों की बात माने तो लंबी अवधी वाले धान के बिचड़ा गिराने का समय धीरे-धीरे कर बीत रहा है. ऐसे तो किसान 160 दिनों में तैयार होने वाला धान का बिचड़ा आर्द्रा नक्षत्र में लगाते है, पर उत्पादन प्रभावित होती है. मौसम वैज्ञानिक डाॅक्टर चौबे ने बताया कि धान के लम्बी अवधि वाले प्रजाति एमटीयू 7029, स्वर्णा सब-1, राजेंद्र मंसूरी-1, राजेंद्र मंसूरी-2 राज श्री, सबौर श्री तथा सुगंधित सुगंधा टाइप 3 आदि वैराईटी के धान के नर्सरी लगाने का उपयुक्त समय 25 मई से 10 जून तक है. धान के मध्यम अवधि वाले प्रजातियों जैसे सीता, कनक, राजेन्द्र श्वेता, बीपीटी 5204 (सम्भा मंसूरी), सबौर अर्द्धजल, एमटीयू 1001 का बिछड़ा लगाने का सही समय 10 जून से 25 जून होता है. उन्होंने बताया कि कम अवधि के प्रजातियों के धान का बीचड़ा लगाने का सही समय 25 जून से 10 जुलाई होता है. कम अवधि की प्रजातियां जैसे- तुरंता, प्रभात, सहभागी, शुष्क सम्राट और सबौर दीप आदि 80 दिन से लेकर 120 दिन में तैयार हो जाता है.

क्या कहते हैं पदाधिकारी

डीएओ रामईश्वर प्रसाद ने बताया कि पर्यावरण प्रदूषण के वजह से जलवायु परिवर्तन में अनिश्चिता आ रही है. ऐसे में किसान से लेकर आम नागरिक परेशान दिख रहे है. उन्होंने बताया कि आत्मा के तहत्त पंचायत स्तर पर चौपाल आयोजन कर किसानो को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावो से निबटने के लिए ट्रेनिंग दी जा रही है. मौसम को देखते हुए अभी से सभी लोग को पर्यावरण के प्रति सचेत होने की जरूरत है. धरती पर पेड़ो की संख्या कमने से इसका दूरगामी परिणाम बेकार होगा.

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