Exclusive: मनीष राज सिंघम/ औरंगाबाद में आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में पुरानी सभ्यता बरकरार है. वैसे शहरी इलाकों में विलुप्त होने वाले अधिकांश चीजे ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलती है. दो बैलों से कोल्हू (कल) से गन्ना की पेराई होने वाली मशीन ग्रामीण इलाकों में अभी भी बरकरार है. लोग इस परंपरा को खत्म होने देना नहीं चाहते है. कुछ किसानों का तो यह भी कहना है कि आधुनिक चीजें ग्रामीण इलाकों में नहीं चल सकता. वैसे आज का मानव विद्युत ऊर्जा का गुलाम है, लेकिन बिहार प्रदेश के कुछ ग्रामीण क्षेत्र ऐसे भी हैं, जो आज भी ठेठ परंपरागत तौर से बाहर नहीं आ पाए हैं. किसी जमाने में सिंचाई के लिए प्रयोग की जाने वाली कोल्हू में जोते जाने वाले बैल आजकल गन्ने की चरखी चलाने का काम कर रहे हैं. हालांकि यह काम अब न के बराबर है. ग्रामीण क्षेत्रों से भी यह खत्म होने के कगार पर है. इसका कारण यह है कि खेती आधुनिक तरीके से होना. महंगे लेबर और बिजली के बढ़ते हुए बिलों ने जहां लोगों को यह सब करने के लिए मजबूर किया हुआ है, वहीं जनरेटर के धूंए से बेस्वाद गन्ना रस बजाय शुद्ध रस पीकर लोग भी संतुष्टि अनुभव कर रहे हैं.
बैलों से हो रही गन्ने की पेराई
जिला मुख्यालय से पच्चीस किलोमीटर दूर स्थित मदनपुर प्रखंड के हसनबार गांव में गन्ने से रस निकालने वाली मशीन लगाई गई है. यहां दो बैलों से गन्ने का रस निकाला जाता है. गन्ने की पेराई कर रहे बंगरे गांव के किसान रामजी महतो ने बताया कि पहले उनका खुद का भी मशीन हुआ करता था. उस इलाके में गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर होती थी, लेकिन अब गन्ना बंगरे गांव में न के बराबर है. गन्ना की खेती कम होने के कारण मशीन जिसे कल या कोल्हू कहा जाता था वह अब बिक गया या घर पड़े पड़े जंग लगकर बर्बाद हो गया. उन्हें खुद अपने गन्ने की पेराई करने के लिए दूसरे गांव के किसानों के मशीन का सहारा लेना पड़ा. इसका कारण है कि बंगरे में गन्ने की खेती न होना. वहीं हसनबार गांव में कुछ कुछ गन्ने की खेती होती है. सड़क से गुजरने वाले राहगीर रूककर उसे देखते रहते है कि कैसे दो बैलों से गन्ने का रस निकल रहा है. वैसे इसमे काफी मेहनत भी आता है. बैलों के साथ-साथ एक व्यक्ति को भी घूमना पड़ता है. वहीं एक व्यक्ति कोल्हू (कल) में गन्ना डालता है जिससे रस निकलता है.
गन्ने की खेती में लगता है ज्यादा समय
वहीं गन्ने से रस निकलने के बाद उसका चेपुआ भी उपयोग में आ जाता है. इसके बाद रस को एक रस को बड़ा कड़ाह में डालकर चूल्हे पर गर्म कर के गुड़ बनाया जाता है. वहीं गुड़ बाजारों में बिकता है. वैसे मूल रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में गन्ने की चरखी पर कोल्हू का प्रयोग करने की विधि देखे जाने से लोगों में कौतुहल है. कल तक मुहावरों और कीताबों में पढ़ी जाने वाली भारतीय सिंचाई की इस पद्धति को गन्ने की चरखी पर देखना नई पीढ़ी को आश्चर्यजनक लग रहा है. परंपरागत इस तरीके से दुकानदार को न तो बिजली की खपत में पैसे बिगाड़ना पड़ रहा और न ही महंगा डीजल पंप व ईंधन पर खर्चना पड़ रहा, और तो और धुंए के प्रदूषण से भी मुक्त होने से ग्राहकों की संख्या बढ़ रही है. इसके लिए बैल को आकर्षक ढंग से तैयार किया गया है. किसान रामजी महतो ने बताया कि पहले भारी मात्रा में गन्ने की खेती होती थी तो कोल्हू या कल रखते थे. गन्ने की खेती कम होने लगी तो कोल्हू खत्म हो गया. इसका कारण है कि गन्ने की खेती में भार थोड़ा ज्यादा है और मजदूर भी काम करना नहीं चाहते. वहीं इसका खपत भी इलाके में नहीं है. गन्ने की खेती में समय भी अधिक लगता है उसके बदले दो फसल हो जाते है और उससे मुनाफा भी अच्छा हो जाता है. अगर आसपास में चीनी की फैक्ट्री होती तो गन्ने की खेती करने के लिए किसान उत्सुक होते. फैक्ट्री न होने से औरंगाबाद ही नहीं बिहार में भी गन्ने की खेती कम हो रही है. अब थोड़ा बहुत बच्चों के लिए गन्ने की खेती करते है और आसपास के गांवों में कोल्हू लगा होता है, वहां उसका पेराई कर लेते है और गुड़ बनाते है.