Dalai Lama: पटना. तिब्बती आध्यात्मिक गुरु दलाई लामा 6 जुलाई को अपना 90वां जन्मदिन मना रहे हैं. दलाई लामा के 90वें जन्मदिन पर धर्मशाला में भव्य समारोह का आयोजन हुआ, जिसमें अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू और जेडीयू नेता राजीव रंजन (ललन) सिंह ने भाग लिया. ललन सिंह ने अपने सम्बोधन बिहार से महात्मा बुद्ध के स्वर्णिम इतिहास और बोद्ध गया तथा नालंदा से दलाई लामा के जुड़ावों का स्मरण किया. विश्व शांति के लिए बौद्ध दर्शन की महत्ता पर उन्होंने जोर दिया. दलाई लामा 60 से अधिक सालों से तिब्बत के लोगों और उनके हितों को लेकर अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बनाए रखने में कामयाब रहे. हालांकि उनके इस मिशन की कर्मभूमि भारत ही रहा है. दरअसल दलाई लामा उनका नाम नहीं, बल्कि उनका पद है. वह 14वें दलाई लामा हैं. उनका असल नाम ल्हामो धोंडुप था.
जन्म और परिवार
किंघई के उत्तर-पश्चिमी चीनी प्रांत में 06 जुलाई 1935 को एक किसान परिवार में ल्हामो धोंदुप का जन्म हुआ था. एक खोज दल ने उनको तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक नेता वा 14वां अवतार माना था, उस दौरान वह 2 साल के थे. वहीं साल 1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया था. हालांकि इस कब्जे को चीन ने ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ कहा था. इस घटना के कुछ समय बाद ही किशोर दलाई लामा ने एक राजनीतिक भूमिका निभाई थी. इस दौरान उन्होंने माओत्से तुंग और अन्य चीनी नेताओं से मिलने के लिए बीजिंग की यात्रा की. वहीं 9 साल बाद डर से कि उनका अपहरण किया जा सकता है. तिब्बत में एक बड़े विद्रोह को बढ़ावा मिला था. तिब्बत में किसी भी विद्रोह को दबाने के लिए चीनी सेना ने बाद में काफी जुल्म ढाए.
1959 में सैनिक वेश में आये भारत
17 मार्च 1959 को एक सैनिक के वेश में उनको भारत लाया गया. भारत में उनका दिल खोलकर स्वागत किया गया. भारत ने हमेशा तिब्बत को आजाद देश के रूप में माना और मजबूत वाणिज्यिक और सांस्कृतिक संबंध साझा किए. वहीं 1954 में भारत ने चीन के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस दौरान इसको ‘चीन के तिब्बत क्षेत्र’ के तौर पर स्वीकार किया. भारत आने के बाद दलाई लामा का दल कुछ समय के लिए अरुणाचल प्रदेश के तवांग मठ में रुका. मसूरी में नेहरु से मुलाकात के बाद भारत ने 3 अप्रैल 1959 को उनको शरण दी.
निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की
चीनी दमन से भाग रहे हजारों तिब्बती निर्वासितों के लिए हिमाचल प्रदेश का धर्मशाला पहले से ही एक घर बन गया था. फिर दलाई दामा भी स्थायी रूप से वहां पर बस गए और निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की. हालांकि उनके इस साहसिक कदम से चीन नाराज हो गया. उन्होंने बीजिंग की ओर हाथ बढ़ाने की बार-बार कोशिश की, लेकिन उनको हर बार कम फायदा हुआ. इससे निराश होकर उन्होंने साल 1988 में घोषणा कर दी कि उन्होंने चीन से पूर्ण स्वतंत्रता की मांग करना छोड़ दिया. इसकी बजाय उन्होंने फैसला लिया कि वह चीन के भीतर सांस्कृतिक और धार्मिक स्वायत्तता की मांग करेंगे.
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