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वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ द इंटरनेशनल पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन में लिया हिस्सा

वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ द इंटरनेशनल पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन में लिया हिस्सा

वरीय संवाददाता, बोधगया.

मगध विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो एसपी शाही ने दक्षिण कोरिया के सियोल में आयोजित 28वें वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ द इंटरनेशनल पॉलिटिकल साइंस एसोसिएशन में भाग लेकर बिहार में अनुसूचित जातियों का राजनीतिक सशक्तीकरण विषय पर अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया. उन्होंने अपने शोध में बताया कि बिहार में अनुसूचित जातियों का राजनीतिक उभार भारतीय लोकतंत्र की सबसे परिवर्तनकारी किंतु विरोधाभासी यात्राओं में से एक है. गया जी और पश्चिम चंपारण जैसे जिलों से प्राप्त साक्ष्य दर्शाते हैं कि अब अनुसूचित जातियां केवल राजनीतिक बदलाव की दर्शक नहीं रहीं, बल्कि वे इसके दावेदार और परिवर्तन की वाहक बन चुकी हैं. हालांकि, यह उभार एकसमान नहीं है. यह क्षेत्रीय इतिहास, शिक्षा, भूमिहीनता, लिंग और राजनीतिक मध्यस्थों की भूमिका से गहराई से प्रभावित है. प्रो शाही ने बताया कि संविधानिक सुरक्षा, शिक्षा और राजनीतिक जागरूकता के चलते इन वर्गों में मतदान व्यवहार और प्रतीकात्मक भागीदारी में स्पष्ट वृद्धि हुई है, परंतु सामाजिक मानदंड, आर्थिक निर्भरता और जातिगत श्रेणियों की जड़ें अब भी इनके राजनीतिक सशक्तीकरण में बाधा बनी हुई हैं. पश्चिम चंपारण में जहां दलितों का जमीनी राजनीतिक उभार अधिक मजबूत दिखाई देता है, वहीं गया जी में यह प्रक्रिया संरचनात्मक रूप से अधिक रूढ़िवादी और संरक्षकात्मक राजनीति पर आधारित है.

प्रो शाही ने इस विरोधाभास की ओर विशेष ध्यान दिलाया कि दलित समुदाय की चुनावी दृश्यता तो बढ़ी है, लेकिन शिक्षा, नौकरशाही और रोजमर्रा के जीवन में भेदभाव आज भी बना हुआ है. साथ ही अनुसूचित जातियों के भीतर उपजातीय भेद, वर्गगत गतिशीलता और प्रभुत्वशाली जातियों से निकटता के आधार पर नये प्रकार की असमानताएं भी उभर रही हैं. उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि दलित युवाओं और महिलाओं में तेजी से उभरती राजनीतिक चेतना और डिजिटल मंचों के उपयोग ने एक नयी आकांक्षी राजनीति को जन्म दिया है, जो केवल चुनावी हिस्सेदारी तक सीमित नहीं, बल्कि गरिमा, प्रतिनिधित्व और नीतिगत बदलाव की मांग भी कर रही है.

क्या दर्शाता है शोध

प्रो शाही का यह शोध यह दर्शाता है कि बिहार में अनुसूचित जातियों का राजनीतिक सशक्तीकरण अभी अधूरा अवश्य है, लेकिन अब यह प्रक्रिया अपरिवर्तनीय हो चुकी है. यह एक ऐसी यात्रा है, जो पीड़ा की ऐतिहासिक जड़ों से निकली है. परंतु, अब न्याय और समानता के संवैधानिक व नैतिक दृष्टिकोण से सशक्त हो रही हैं.

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