आषाढ़ मास के अंत व सावन महीना की शुरुआत से होती थी कजरी
प्रतिनिधि, वारिसलीगंज
एक समय था, जब आसमान में काले बादलों के छाने पर हर जगह कजरी की धुन सुनाई पड़ने लगती थी. लेकिन, अब सब कुछ बदला-बदला सा दिख रहा है. यही कारण है कि लोक गीतों की रानी कजरी को भूलने लगे हैं. कजरी सिर्फ गायन नहीं, बल्कि बारिश के मौसम की सुंदरता और उल्लास को शब्दों से पिरोने का माध्यम भी था. माना जाता है कि कजरी प्रकृति में भी मौजूद दिखता है.आषाढ़ मास के अंत व सावन महीना की शुरुआत से ही कजरी के बोल प्रायः शुरू हो जाते थे. कजरी को सुनने के लिए मतवाले बादल रुककर न चाहते हुए भी बरसने लगते थे. कजरी में राग, विराग व श्रृंगार समसामयिक विषयों की गुंज भी सुनाई देती थी. जो अब लगभग विलुप्त के कगार पर है. कजरी अब कहीं दिखता ही नहीं है. जानकारों के अनुसार,काले-काले बादलों के बीच गाए जाने के कारण इसे कजरी कहा जाता है. कजरी सहित अन्य लोक संगीत प्रकृति से लोगों को जोड़ती है. इसलिए इसे बढ़ावा देने की जरूरत है.क्या कहते हैं लोग
कजरी सिर्फ मनोरंजन का माध्यम नहीं,यह विरहा का श्रृंगार की अभिव्यक्ति है. बारिश का मौसम आते ही संगीत प्रेमी को कजरी के मोहक शब्द अनायास याद आ जाते हैं. बारिश में झूले पर इसका गायन मनमोहक होता है.-डॉ गोविंद्र तिवारी, सेवानिवृत शिक्षक
कजरी समाप्त नहीं हुआ है,कमी जरूर आयी है. इसका प्रमुख कारण है संयुक्त परिवार का बिखराव व आपसी तालमेल की कमी. जीवन में मौसमी गीतों का अलग महत्व है. बरसात के मौसम में बारह मास, छह मास व चार मास के साथ कजरी गाने का प्रचलन है.-लक्ष्मी नारायण सिंह, ठेरा गांव
बरसात के मौसम में गाया जाने वाला कजरी लगभग समाप्त हो गया. कजरी गायन को चौहार गीत का रुप दिया जाता था. इसे नाटक भी कहा जा सकता है. महिला की दो अलग-अलग झुंड बनाकर एक के द्वारा सवाल तो दूसरे के द्वारा जवाब की परंपरा है.-प्रभु प्रसाद, मुखिया,मोहिउद्दीनपुर पंचायत,वारिसलीगंज.
पहले तो चैती, दादरा व ढ़ुमरी के लिए महोत्सव का आयोजन धूमधाम से किया जाता था. इस बदलते दौर में सब कुछ बदला-बदला सा हो गया है. फिल्मों ने निश्चय तौर पर लोगों का स्वाद बदला है. बारिश के मौसम में गाया जाने वाला कजरी तो सचमुच लोक गीतों की रानी है.-श्याम सुंदर कुशवाहा, हाजीपुर
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