हिंदी रंगमंच दिवस पर विशेष
हिंदी रंगमंच पर जब भी कोई बातचीत होती है, बंगला और मराठी रंगमंच का संदर्भ आ जाता है. तुलना की जाती है कि हिंदी रंगमंच क्यों नहीं बंगला और मराठी रंगमंच की तरह समृद्ध हो पाया? इस सबंध में जो सबसे प्रमुख और परिचित वजह बतायी जाती है कि हिंदी इलाके में बाकी दोनों प्रदेशों की तरह समाज सुधार आंदोलन का अभाव रहा है, नवजागरण की अनुपस्थिति रही है. महाराष्ट्र में स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वमान्य नेता लोकमान्य तिलक सार्वजनिक सभाओं में लोगों को नाटक देखने के लिए प्रेरित किया करते थे. वैसे हिंदी प्रदेश में नवजागरण के प्रारंभ का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जाता है, जो एक नाटककार थे. लगभग सवा सौ वर्ष देशवासियों से उनकी अपील कार्फी चर्चित रही है – ‘आवहूं मिली भारत भाई नाटक देखहूं सुख पाई…’
………………19वीं सदी में नहीं हो पाया था नवजागरण
……………….
सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव और विचार की भूमिकारंग संगठनों को वैचारिक रूप से समृद्ध काम आगे बढ़ाए बिना यह संभव नहीं था. पर दुर्भाग्यवश, कुछ अपवादों को छोड़कर रंगमंच ने इस दिशा में कभी गंभीर प्रयास नहीं किए. जो थोड़ी बहुत भूमिका इस मोर्चे पर निभायी गयी है, वह मुख्यत: वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों द्वारा ही रही है. पिछले तीन दशकों के दौरान रंग प्रतिष्ठानों ने विचार आधारित इन संगठनों पर सबसे अधिक हमला किया. रंगमंच में आ रहे बदलावों पर गौर करने से यह प्रवृत्तियां स्पष्ट रूप से दिखायी देती हैं, जैसे कि पूरे रंगमंच में अभिनेता की भूमिका को गौण करना, डिजाइन की प्रधानता देना, नाटककार के बजाय निर्देशक का केंद्रीय स्थान लेना, और नाटकों में प्रदर्शनकारी तत्वों की भरमार करना. इन सबके माध्यम से विचार को हाशिये पर डालने की कोशिश की गयी.
…………………….रंगमंच का लोकशैली से सीमित होना
‘रंगमंच स्थानीय होता है’ इस सिद्धांत को केवल लोकशैलियों तक सीमित कर दिया गया. गरीब जनता के कला माध्यमों को बढ़ावा देने की बात तो की गयी, लेकिन उनके जीवन में जो भयावह हादसे हो रहे थे, वे कभी रंगमंच के विषय नहीं बन पाए. रंगमंच को इस समृद्ध लोकधारा से रचनात्मक संबंध स्थापित कर उसे आधुनिक रंगपरियोजना की दिशा में आगे बढ़ाना चाहिए था. इसके बजाय, ‘फोक’ के प्रति उपयोगिता दृष्टिकोण अपनाया गया, जिससे फोक के प्रदर्शनकारी तत्वों पर जोर देकर उसकी आत्मा को गौण बना दिया गया.……………….
सामाजिक बदलाव और रंगमंच का प्रतिध्वनियह अकारण नहीं है कि पिछले ढाई दशकों से उत्तर भारत में सामाजिक स्तर पर जो बड़े बदलाव हुए, उनकी कोई ठोस प्रतिध्वनि रंगमंच पर क्यों नहीं दिखाई दी? कोई भी कला माध्यम तभी समाज में व्यापक स्वीकृति प्राप्त करता है जब वह बदलाव की शक्तियों और संघर्षों से खुद को जोड़ता है. हिंदी प्रदेश में आधुनिकता की अवरुद्ध परियोजना को आगे बढ़ाया जा सकता था, और हिंदी रंगकर्म ने 80 के दशक में इस दिशा में कुछ हद तक काम भी किया. लेकिन वैश्वीकरण के बाद हिन्दी रंगकर्म इस रास्ते से विमुख हो गया.
………………..बंगाल-महाराष्ट्र से सीख
हिंदी रंगमंच को उत्तर भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बनना है, तो उसे बंगाल और महाराष्ट्र के रंगकर्म से सीखने की आवश्यकता है. उसे उन विषयों को उठाना होगा जो आज मुख्य धारा की बहस का हिस्सा नहीं हैं. इससे विवाद पैदा हो सकते हैं, लेकिन इन विवादों से विचलित हुए बिना आगे बढ़ना होगा. इस संदर्भ में प्रसिद्ध कन्नड़ नाटककार गिरीश कर्नाड का यह वक्तव्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो थियेटर विवाद पैदा नहीं करेगा, वह अपना कफन खुद तैयार कर रहा है.डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है