संवाददाता, पटना खेतों में फसलों की हरियाली और फलों की मिठास के पीछे कई छोटे-छोटे जीवों की अथक मेहनत होती है, जिन्हें हम नजरअंदाज कर रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार विवेक मिश्रा ने इन अनदेखे योद्धाओं, खासकर गोबरैला, मधुमक्खियों और देसी कीट प्रजातियों की महत्ता को धरातल से जोड़ कर रेखांकित किया है. प्रभात खबर के साथ बातचीत में उन्होंने बताया कि हमारी खाद्य सुरक्षा, पोषण व्यवस्था और पारिस्थितिकी तंत्र गंभीर संकट में है. खेतों की उर्वरता घट रही है. फलों की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है और परागणकर्ता जीवों की संख्या कम हो रही है. विवेक मिश्रा ने गोबरैला को खेतों का मौन सेवक बताया है. यह छोटा जीव खेतों में पड़े गोबर को मिट्टी में मिला कर उसकी उर्वरता बनाये रखता है. रोचक बात यह है कि यह रात में आकाशगंगा की रोशनी से दिशा पहचानता है और गोबर को एक गोले में लपेट कर सीधी रेखा में ले जाता है. लेकिन, अब प्रकाश प्रदूषण ने उसका यह स्वाभाविक मार्ग बाधित कर दिया है. शहरों और गांवों में रात का आकाश कृत्रिम रोशनी से भर गया है, जिससे गोबरैला भटकने लगा है. इससे मिट्टी में गोबर का जैविक रूप से मिलना कम हो रहा है और उपजाऊपन घट रहा है. परागण एक ऐसा मौन काम है, जिसे कीट, तितलियां, भौंरे और मधुमक्खियां बखूबी करती हैं. लेकिन, जब ये जीव नहीं होंगे, तो न केवल फलों की संख्या कम होगी, बल्कि उनका स्वाद, पोषण और आकार भी प्रभावित होगा. लीची, आम और सेब जैसी नगदी फसलें हैं, जो क्रॉस पोलिनेशन पर निर्भर हैं. इन फलों में स्वपरागण से उत्पादन तो होता है, लेकिन उसकी गुणवत्ता में भारी गिरावट देखी जा रही है. नेचर जर्नल और आइसीएआर के शोध यह स्पष्ट करते हैं कि जिन बागानों में क्रॉस पोलिनेशन नहीं हुआ, वहां फल कम बने, स्वादहीन थे और उत्पादन क्षमता भी कम रही. मुजफ्फरपुर की लीची और बिहार के आम इसका जीता-जागता उदाहरण हैं.
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