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Orchestra Day: बिहार में आर्केस्ट्रा ट्रैफिकिंग का मायाजाल, ट्रैफिकिंग में फंसती मासूम बच्चीयों की कहानी

Orchestra Day: आज ऑर्केस्ट्रा दिवस है. ऑर्केस्ट्रा के चमकते मंचों के पीछे छिपा है काला सच, जहां हर रात किसी मासूम की चीख दबा दी जाती है. बिहार कैसे बन गया ट्रैफिकिंग हब? क्यों कानून होते हुए भी बच्चियां बार-बार फंस जाती हैं? पढ़िए, एक बाल अधिकार कार्यकर्ता की आंखों-देखी दास्तान, जो डराती भी है, और झकझोरती भी.

Orchestra Day: भुवन ॠभु. वो बच्ची छत्तीसगढ़ से चली थी,एक एक उम्मीद लेकर किसी ने उसके मां-बाप से कहा था,’डांस सीखेगी, पैसा मिलेगा, शायद नाम भी हो जाए,’अंतहीन गरीबी ने मां-बाप को थका दिया था.उन्होंने हामी भर दी. पर जब वो बिहार में मिली… तो वह लड़की कहीं खो चुकी थी. जो वादा था, मंच व मशहूरी का, वह कैद, हिंसा और हर रात बलात्कार के दुःस्वप्न में तब्दील हो चुका था. उस समय वह सिर्फ 14 साल की थी.

यह कहानी किसी एक की नहीं

पिछले छह महीनों में, बिहार पुलिस ने राज्यभर से 271 लड़कियों को मुक्त कराया. इनमें 153 लड़कियां वो थीं, जिन्हें अच्छे पैसे और नाम कमाने का झांसा देकर ट्रैफिकिंग के जरिए लाया गया और ऑर्केस्ट्रा समूहों को सौंप दिया गया. बाकी 118 को सीधे देह व्यापार में झोंक दिया गया था.

जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन के साथी संगठनों और जिला पुलिस के साझा प्रयासों से मार्च से जून के बीच 116 से मुक्त कराया गया. पर वे जिस हाल में मिलीं वह डरावना था. हर पीड़ित गुलामी, स्थानांतरण, शोषण और हिंसा जैसे अपराधों की एक श्रृंखला से गुजरता है. पहले बहलाया जाता है, फिर ले जाया जाता है… फिर बंद किया जाता है, तोड़ा जाता है… और अंत में इस्तेमाल किया जाता है.

इस दुष्चक्र में फंसने वालों में सबसे असहाय होते हैं बच्चे अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) व यूनिसेफ के अनुसार, वर्ष 2024 में लगभग 13.8 करोड़ बच्चे बाल श्रम में संलग्न थे, जिनमें लगभग 5.4 करोड़ बच्चे ऐसे कामों में थे.

बिहार कैसे बना ट्रैफिकिंग का गढ़

बिहार आज बच्चियों की ट्रैफिकिंग का बड़ा केंद्र बन गया है और यह संयोग नहीं है. नेपाल के रास्ते से और रेल के जरिए बंगाल, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, असम और यूपी से हर रोज कोई न कोई बच्ची इस जाल में लायी जाती है. सारण, गोपालगंज, मुजफ्फरपुर, रोहतास और पश्चिम चंपारण जिलों को आर्केस्ट्रा बेल्ट कहा जाता है. बच्चों की ट्रैफिकिंग कोई पर्दे के पीछे छिपा सच नहीं है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, सिर्फ 2022 में 2,878 बच्चों की ट्रैफिकिंग हुई जिनमें 1,059 लड़कियां थीं. लेकिन असली संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि ज्यादातर मामले तो दर्ज ही नहीं होते. आर्केस्ट्रा में नाबालिगों के काम पर तत्काल और पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए. हमारे पास औजार हैं, कानून हैं, मिसालें हैं. अब केवल इच्छाशक्ति की आवश्यकता है. जितनी देर करेंगे, उतना अधिक खोएंगे..

व्यवस्था की विफलता

बच्चों की ट्रैफिकिंग कोई पर्दे के पीछे छिपा सच नहीं है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, सिर्फ 2022 में 2,878 बच्चों की ट्रैफिकिंग हुई। जिनमें 1,059 लड़कियां थीं. लेकिन असली संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि ज्यादातर मामले तो दर्ज ही नहीं होते. कभी डर से, कभी शर्म से… और कई बार इसलिए कि घरवाले ही शामिल होते हैं.

भारत में बच्चों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानून हैं लेकिन इसके बावजूद जुर्म साबित होने व सजा की दर मामूली है. ज्यादातर मामले अपहरण या गुमशुदगी के रूप में दर्ज होते हैं, न कि ट्रैफिकिंग के रूप में एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट्स (एएचटीयू) संसाधन विहीन है.

कई राज्यों में फैली जांचें अधिकार क्षेत्र और नौकरशाही की उलझनों में फंस कर रह जाती हैं, और जब लड़कियां बचाई जाती हैं, तो अक्सर उन्हीं परिवारों को लौटा दी जाती हैं जिन्होंने उन्हें बेचा था.

लेखक प्रख्यात बाल अधिकार कार्यकर्ता, अधिवक्ता और जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रेन के संस्थापक हैं.

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Pratyush Prashant
Pratyush Prashant
कंटेंट एडिटर और शोधकर्ता . लाड़ली मीडिया अवॉर्ड विजेता. जेंडर और मीडिया में पीएच.डी. . हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित लेखन . यूथ की आवाज़, वूमेन्स वेब आदि में लेख प्रकाशित.

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