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Jharkhand Village Story: झारखंड का एक गांव, जहां न तो होलिका दहन और न ही खेली जाती है रंगों की होली

Jharkhand Village Story: झारखंड के बोकारो जिले में एक गांव है दुर्गापुर, जहां न तो होलिका दहन और न ही होली मनायी जाती है. ग्रामीण होली के दिन रंग को हाथ तक नहीं लगाते. अबीर-गुलाल भी नहीं छूते.

Jharkhand Village Story: कसमार (बोकारो), दीपक सवाल-होली में रंगों का उत्सव आम है, लेकिन झारखंड का एक गांव, जहां न तो होलिका दहन, न ही होली मनायी जाती है. रंगोत्सव पर ये गांव बिल्कुल रंगहीन नजर आता है. न तो होली का हुड़दंग दिखता है और न ही रंगों में सराबोर लोग दिखते हैं. ग्रामीण रंग और अबीर-गुलाल को हाथ तक नहीं लगाते. आखिर इस गांव के लोग होली क्यों नहीं मनाते? ऐसा क्या हुआ कि लोग इससे परहेज करने लगे?

होली में नहीं खेलते रंग


होली रंगों का त्योहार है. होली के रंगों में ही इस त्योहार की खुशियां समायी हैं. रंगों के बिना होली की कल्पना भी नहीं की जा सकती, लेकिन झारखंड के बोकारो जिले के दुर्गापुर के लोग होली के दिन रंग-अबीर को हाथ तक नहीं लगाते. रंगों की होली तो कोसों दूर की बात है. इस गांव में सदियों से यही परंपरा है. इसके पीछे कई तरह की मान्यताएं हैं.

युद्ध में सपरिवार मारे गए थे पदमा राजा


कहा जाता है कि करीब साढ़े तीन सौ साल पहले दुर्गापुर में राजा दुर्गा प्रसाद देव का शासन था. गांव की ऐतिहासिक दुर्गा पहाड़ी की तलहटी में उनकी हवेली थी. पदमा (रामगढ़) राजा के साथ हुए युद्ध में वे सपरिवार मारे गए थे. उस वक्त होली का समय था. इसी गम में वहां के लोग तब से होली नहीं खेलते. ऐसी मान्यता है कि होली खेलने से गांव में कोई अप्रिय घटना घटित हो जाती है. कुछ अन्य मान्यताएं भी हैं.

बडराव बाबा को नहीं पसंद है रंग और धूल


दुर्गा पहाड़ी को बडराव बाबा के नाम से भी जाना जाता है. ऐसी मान्यता है कि बडराव बाबा रंग और धूल पसंद नहीं करते. यही कारण है कि उनकी पूजा में बकरा और मुर्गा भी सफेद रंग का ही चढ़ाया जाता है. बडराव बाबा की इच्छा के विपरीत गांव में रंग-अबीर का उपयोग करने पर गांव में अनहोनी होती है. बडराव बाबा नाराज न हों, इसलिए गांव में होली नहीं मनायी जाती.

मल्हारों की होली के बाद फैल गयी थी महामारी


होली नहीं खेलने के पीछे कुछ ग्रामीणों मानना है कि करीब 200 वर्ष पहले यहां मल्हारों की एक टोली आकर ठहरी थी. उस वर्ष मल्हारों ने यहां जमकर होली खेली थी. उसके दूसरे दिन से ही गांव में अप्रिय घटनाएं घटित होने लगीं और महामारी फैल गयी. इस घटना के बाद से गांव के लोग होली खेलने से परहेज करने लगे.

दुर्गापुर गांव में ही प्रतिबंधित है होली


होली गांव की सीमा तक ही प्रतिबंधित है. ऐसा नहीं है कि गांव वाले दूसरी जगह होली नहीं खेल सकते. अगर कोई चाहे तो दूसरे गांवों में जाकर होली मना सकता है. कुछ लोग मनाते भी हैं. कोई ससुराल तो कोई मामा घर जाकर, कोई मित्र के यहां तो कोई अन्य रिश्तेदारों के घर जाकर होली का आनंद उठाता है. दूर प्रदेशों में रहने वाले युवक भी जमकर होली खेलते हैं, लेकिन जब गांव में रहते हैं तो रंग छूते तक नहीं हैं.

बहुएं मायके जाकर खेल पाती हैं होली


दुर्गापुर में ब्याह कर आई बहुओं का अलग ही दु:ख है. शादी से पहले मायके में तो वे खूब होली खेलती हैं, लेकिन दुर्गापुर में ब्याहने के बाद होली नहीं खेल पाती हैं. कुछ बहुएं होली खेलने मायके अवश्य चली जाती है. सावित्री देवी कहती हैं कि उनका मायके करमा गांव में है. शादी से पहले वहां खूब होली खेलती थीं, लेकिन शादी के बाद 18 साल से होली नहीं खेली हैं. सुबा देवी का मायके टांगटोना है. उन्होंने कहा कि कई बार होली में मायके नहीं जा पाती हैं. तब उदासी तो रहती है, लेकिन गांव की परंपरा तो निभानी ही होगी. कसमार से ब्याह होकर आई नसीमा बीबी की कहानी कुछ और है. शादी हुए काफी बरस हो गए, लेकिन होली खेलने कभी मायके नहीं गयीं, जबकि शादी से पहले वह जमकर होली खेलती थीं. वह कहती हैं कि जिस गांव की जो परंपरा है, उसे निभाना चाहिए.

गांव की लड़कियां शादी के बाद खेल पाती हैं होली


बहुएं शादी से पहले तो जमकर होली खेलती थीं, लेकिन दुर्गापुर में होली नहीं खेल पाती हैं. गांव की बेटियां शादी के बाद दूसरी जगह पर होली खेलती हैं. संगीता कुमारी और सुनीता कुमारी कहती हैं कि होली खेलने का उन्हें कभी मौका नहीं मिला. शादी के बाद ससुराल में होली खेल सकती हैं. मीना कुमारी और अन्य युवतियों ने कहा कि होली नहीं खेल पाने का मलाल तो रहता है, लेकिन गांव की परंपरा निभानी पड़ती है.

परंपरा को दरकिनार करना पड़ गया था महंगा


कुछ ग्रामीणों ने बताया कि वर्ष 1961-62 में कुछ लोगों ने इस परंपरा को दरकिनार करते हुए गांव में होली खेली थी. अगले ही दिन गांव में अप्रिय घटनाएं होने लगीं. कई मवेशी मर गए. लोग बीमार पड़ने लगे. डर कर लोग दूसरे गांव में भाग गए थे. पाहन ने बडराव बाबा की पूजा-अर्चना की, तब जाकर सब-कुछ सामान्य हुआ था और लोग गांव लौटे थे. तब से फिर कभी किसी ने होली नहीं खेली है.

कसमार प्रखंड का सबसे बड़ा गांव है दुर्गापुर


दुर्गापुर आबादी के दृष्टिकोण से बोकारो जिले के कसमार प्रखंड का सबसे बड़ा गांव है. कुल 12 टोलों में फैला हुआ है. प्रखंड में मंजूरा के बाद एकमात्र ऐसा गांव है, जो कुल चार सीटों में फैला हुआ है. एक सीट यानी 108 एकड़ में तो केवल दुर्गा पहाड़ी फैली हुई है. केवल दुर्गापुर पंचायत ही नहीं, बल्कि यह पहाड़ी पूरे इलाके की आस्था का केंद्र है. मन्नत पूरी होने पर बकरा और मुर्गा चढ़ाया जाता है.

बाबा की इच्छा का आदर कर नहीं खेलते होली-पाहन


पाहन (पुजारी) बोधन मांझी और मुनु मांझी कहते हैं कि बडराव बाबा को रंग और धूल पसंद नहीं है. इसलिए दुर्गापुर के ग्रामीण होली नहीं मनाते. बाबा की इच्छा के खिलाफ काम करने पर अनहोनी हो जाती है. बाबा के प्रति अगाध आस्था जताते हुए लोग इस दिन रंग-अबीर छूना भी पसंद नहीं करते.

होली खेलने पर हुई थी अनहोनी-विदेशी महतो


गांव के विदेशी महतो (85 वर्ष) के अनुसार बडराव बाबा की इच्छा के अनुसार ही गांव में होली नहीं खेली जाती है. वर्षों पहले कुछ मल्हार यहां आकर दो अलग-अलग जगहों पर ठहरे थे. परपंरा के विपरीत मल्हारों ने खूब होली खेली थी. उसी दिन पांच मल्हारों की मौत हो गयी थी. गांव में दो दर्जन से अधिक मवेशी (बैल) मार गए थे. अन्य अप्रिय घटनाएं भी होने लगी थीं.

परंपरा निभा रहे गांव के लोग-अमरलाल महतो


पूर्व मुखिया अमरलाल महतो कहते हैं कि किसी भी गांव की परंपरा बड़ी चीज होती है. उसका पालन करना ही पड़ता है. बात आस्था से जुड़ी हो तो और भी गहराई से पालन करना पड़ता है. आस्था के कारण ही होली नहीं मनायी जाती है. यहां के लोग दूसरे गांवों में होली खेल सकते हैं. कुछ लोग ऐसा करते भी हैं.

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Guru Swarup Mishra
Guru Swarup Mishrahttps://www.prabhatkhabar.com/
मैं गुरुस्वरूप मिश्रा. फिलवक्त डिजिटल मीडिया में कार्यरत. वर्ष 2008 से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से पत्रकारिता की शुरुआत. आकाशवाणी रांची में आकस्मिक समाचार वाचक रहा. प्रिंट मीडिया (हिन्दुस्तान और पंचायतनामा) में फील्ड रिपोर्टिंग की. दैनिक भास्कर के लिए फ्रीलांसिंग. पत्रकारिता में डेढ़ दशक से अधिक का अनुभव. रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एमए. 2020 और 2022 में लाडली मीडिया अवार्ड.

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