Hul Diwas 2025: बरहरवा (साहिबगंज), विकास जायसवाल-हूल क्रांति के महानायक सिदो-कान्हू ने ब्रिटिश हुकूमत, महाजनी प्रथा और स्थानीय साहूकारों के खिलाफ 30 जून 1855 को हूल का आगाज किया था. उस हूल में उनके साथ उनकी दो छोटी बहनें फूलो और झानो का भी काफी अहम योगदान था. दोनों बहनें अपने भाइयों के लिए गांव के लोहार के पास घंटों बैठकर लड़ाई के लिए तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, फरसा, दावा और हंसुआ बनवाती थीं. परिवार की बुजुर्ग महिला बिटिया हेंब्रम बताती हैं कि जब वह ब्याह कर इस घर में नई-नई आई थीं तो उन्हें काफी डर लगता था. गांव में कोई लोग उनसे बात नहीं करते थे क्योंकि सभी लोग काफी डरे-डरे से रहते थे. अंग्रेजी हुकूमत कहीं उनके परिवार पर आकर हमला न कर दे. 11 अप्रैल 1815 की मध्य रात्रि में चुन्नू मुर्मू एवं सुनी हांसदा के घर के सिदो मुर्मू का जन्म हुआ था.
हूल क्रांति में दोनों बहनों का था अहम योगदान
परिवार की दो वीरांगनाओं की कहानी बताते हुए बिटिया हेम्ब्रम बताती हैं कि फूलो-झानो ये दोनों बहनें सिदो-कान्हू से छोटी थीं. बड़े भाई और परिवार के मुखिया होने के कारण सिदो मुर्मू के आदेश का सभी लोग पालन करते थे. जब 30 जून 1855 को भोगनाडीह में करीब 400 गांवों के 50 हजार संथाल आदिवासियों ने एकजुट होकर लड़ाई लड़ने का बिगुल फूंका तो इन दोनों बहनों ने भी इसमें काफी अहम योगदान दिया. आसपास के सभी गांवों में जाकर बैठक की सूचना देना और उन्हें बैठक में बुलाना, बैठक के बाद निर्णय के तहत हथियार जुगाड़ करना और उन हथियार के लिए स्थानीय लोहार के पास जाना और उनके पास बैठकर पारंपरिक हथियार तैयार करना, इन दोनों बहनों की ही जिम्मेदारी थी.
ऐसे मोटरी बांधकर पहुंच गयी थीं अपने भाई से मिलने
दोनों बहनों का हूल की इस क्रांतिकारी लड़ाई में काफी योगदान रहा. एक बार का वाकया है कि जब भागलपुर के जगदीशपुर में सिदो और कान्हु लंबे दिनों से गायब थे और उनकी कोई खोज खबर हीं मिल रही थी तो दोनों बहनों ने घर से खाना बनाकर मोटरी बांधकर माथे पर उठाया और एक बहन ने हथियारों का जखीरा अपने सिर पर लिया और दोनों बहनें पहुंच गयीं अपने भाई से मिलने. भाई से मिलने के बाद उन्हें खाना खिलाया और उन्हें पारंपरिक हथियार उपलब्ध करवाए. इन दोनों की प्रतिमा भोगनाडीह पार्क में बनायी गयी है.
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