Rabri Devi: बिहार की राजनीति में 25 जुलाई 1997 एक ऐतिहासिक तारीख के रूप में दर्ज है. इसी दिन एक साधारण गृहिणी ने देश के एक बड़े राज्य की कमान संभाली थी. नाम था राबड़ी देवी. जो लालू प्रसाद यादव की पत्नी, एक घरेलू महिला और राजनीति से बिल्कुल अछूती थीं. लेकिन जब चारा घोटाले में लालू यादव के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हुई और जेल जाने की नौबत आ गई, तो उन्होंने एक ऐसा सियासी कदम उठाया जिसने बिहार ही नहीं, पूरे देश को चौंका दिया.
मुख्यमंत्री बनने को तैयार नहीं थीं राबड़ी देवी
राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया. जो राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. यह निर्णय जितना अप्रत्याशित था, उतना ही विवादास्पद भी. खुद राबड़ी देवी इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थीं. लेकिन राजनीति की अनिश्चितताएं और लालू यादव की सियासी सूझबूझ ने एक घरेलू महिला को सत्ता की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठा दिया.
राजनीति में पहली पारी: सहजता से संघर्ष तक
राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा किसी राजनीतिक मंथन या पार्टी की आंतरिक सहमति से नहीं, बल्कि एक व्यक्ति की रणनीतिक जरूरत से हुई थी. लालू प्रसाद जानते थे कि अगर उन्होंने किसी अन्य नेता को मुख्यमंत्री बनाया, तो सत्ता उनके हाथों से जा सकती है. लेकिन अगर पत्नी मुख्यमंत्री बनती हैं, तो वे परोक्ष रूप से सत्ता की पकड़ बनाए रख सकते हैं. यही हुआ भी.
“रबर स्टांप” मुख्यमंत्री कहने लगे थे आलोचक
शुरुआत में राबड़ी देवी को कार्यभार संभालने में काफी दिक्कतें आईं. वे विधानसभा में भाषण देने से बचती थीं, सचिवालय जाना उन्हें असहज करता था. आलोचकों ने उन्हें “रबर स्टांप” मुख्यमंत्री कहना शुरू कर दिया. लेकिन समय के साथ उन्होंने खुद को बदला. धीरे-धीरे वो सरकारी कामकाज, प्रशासनिक फैसले और राजनीतिक बयानबाजी में दक्ष होती गईं. उन्होंने यह साबित कर दिया कि एक महिला, वह भी बिना औपचारिक राजनीतिक प्रशिक्षण के, राज्य चला सकती है.
परिवार से राजनीतिक पूंजी तक
राबड़ी देवी का जन्म 1956 में बिहार के गोपालगंज जिले में हुआ था. उन्होंने 1973 में लालू प्रसाद यादव से विवाह किया. तब उनकी उम्र महज 17 वर्ष थी. सात बेटियों और दो बेटों की मां राबड़ी देवी ने कभी नहीं सोचा था कि वे एक दिन राजनीति की ऊंचाईयों पर पहुंचेंगी.
1997 में लालू प्रसाद को देना पड़ा पद से इस्तीफा
1997 में जब लालू प्रसाद को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा, तो पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को यह उम्मीद नहीं थी कि राबड़ी देवी को चुना जाएगा. लेकिन लालू ने यह दांव खेला और अपने सबसे विश्वसनीय व्यक्ति को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी. उनके करीबी नेताओं जैसे रघुवंश प्रसाद सिंह, रामचंद्र पूर्वे और अब्दुल बारी सिद्दीकी ने इस फैसले का समर्थन किया, जिससे लालू की पकड़ पार्टी पर बनी रही.
आलोचना और आत्मविश्वास के बीच राबड़ी का सफर
राबड़ी देवी को हमेशा कमतर आंका गया, लेकिन 2000 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पार्टी को जीत दिलाई और पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण था. इस दौरान लालू प्रसाद जेल से बाहर भी आए, लेकिन उन्होंने दोबारा मुख्यमंत्री बनने की बजाय पर्दे के पीछे से राजनीति को साधने का रास्ता चुना. वह किंग से किंगमेकर बन गए.
लोकसभा चुनाव में करना पड़ा हार का सामना
राबड़ी देवी ने कई बार विवादित बयान भी दिए, लेकिन उनकी सार्वजनिक छवि आम तौर पर शालीन और जमीन से जुड़ी रही. वे सदन में बहस करती हैं, मीडिया से दो-टूक बात करती हैं और बिहार की राजनीति में अब अपनी जगह बना चुकी हैं. 2014 में उन्होंने सारण लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन हार गईं. फिलहाल वे विधान परिषद की सदस्य हैं और नेता प्रतिपक्ष के रूप में सक्रिय हैं.
सियासत की एक अनूठी मिसाल
राबड़ी देवी की कहानी सिर्फ एक महिला के मुख्यमंत्री बनने की नहीं है, यह उस भारत की कहानी है जहां राजनीति अकसर अनपेक्षित मोड़ लेती है. एक महिला जो कभी सार्वजनिक मंच पर बोलने से हिचकती थी, आज सदन में विपक्ष का नेतृत्व करती है. एक समय था जब लोग उन्हें लालू की कठपुतली कहते थे, लेकिन अब वह खुद एक सशक्त राजनीतिक चेहरा बन चुकी हैं.
राबड़ी देवी की राजनीति की शैली भले ही पारंपरिक और सरल हो, लेकिन वह समय-समय पर अपने विरोधियों को सधे हुए जवाब भी देती रही हैं. यही वजह है कि आज भी बिहार की सियासी धारा में उनका नाम मजबूती से बना हुआ है.