मनीष रंजन, आइएएस दिशोम गुरु शिबू सोरेन के अवसान के साथ झारखंड ने न केवल अपना सबसे बड़ा जननेता खोया है, बल्कि अपनी आत्मा का एक हिस्सा भी. यह केवल एक राजनेता की मृत्यु नहीं है, यह एक युग के अवसान का संकेत है. एक ऐसा युग, जो संघर्ष, अस्मिता और न्याय की बुनियाद पर टिका था. मैं अपने सेवाकाल के शुरुआती दिनों को याद करता हूं, जब मैं 2008 से 2010 तक पाकुड़ का उपायुक्त था. मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है लिट्टीपाड़ा का डुमरिया मेला. दिशोम गुरु का आगमन मुख्यमंत्री के रूप में वहां हुआ था. पूरा मैदान खचाखच भरा था. मंच पर मैं भी था और जब मैंने संताली में कुछ शब्द कहे हिचकते हुए ही सही-तो वह दृश्य मेरे जीवन का एक अमिट अनुभव बन गया. गुरुजी स्वयं आगे बढ़कर वहां आये, जहां मैं माइक पर बोल रहा था और हजारों लोगों के सामने मेरी सराहना की. वह एक क्षण नहीं था, वह एक संदेश था कि जब एक प्रशासक जनता की संस्कृति से जुड़ता है, तो वह सिर्फ अधिकारी नहीं, साझेदार बन जाता है. गुरुजी केवल प्रतीक नहीं थे, वे एक जीवंत दर्शन थे. जब भी मुख्यमंत्री आवास पर उनसे मिलने गया, मैंने देखा कि वे कम बोलते थे, ज्यादा सुनते थे. फिर जब वे बोलते तो उनके शब्द केवल विचार नहीं होते, वे अनुभव की तपिश से पक कर निकले होते थे. उनके समाधान प्रशासनिक आदेश नहीं होते थे, वे आत्मिक संवाद के रूप में उतरते थे.
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