Bodhi Tree: (जयश्री आनंद) बोधगया का बोधिवृक्ष सिर्फ एक पेड़ नहीं, बौद्ध धर्म का आस्था का प्रतीक है. मान्यता है कि इसी वृक्ष के नीचे बैठकर गौतम बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. यही वजह है कि हर दिन हजारों श्रद्धालु यहां दर्शन करने पहुंचते हैं. खासकर बुद्ध पूर्णिमा के दिन यहां देश-विदेश से बड़ी संख्या में बौद्ध अनुयायी इस पवित्र वृक्ष की पूजा करने आते हैं. कम लोग जानते हैं कि इस ऐतिहासिक वृक्ष को तीन बार नष्ट करने की कोशिश की गई थी. लेकिन हर बार यह वृक्ष फिर से उग आया. आज जो वृक्ष यहां मौजूद है, वह उसी पवित्र वृक्ष की चौथी पीढ़ी है. यह पेड़ आज भी बौद्ध आस्था, शक्ति और शांति का प्रतीक बना हुआ है.
पहली बार सम्राट अशोक की पत्नी ने कटवाने की कोशिश की थी
मान्यता है कि सम्राट अशोक की वैश्य रानी तिष्यरक्षिता ने बोधिवृक्ष को छुप के कटवाने की कोशिश की थी. यह घटना उस समय की है जब सम्राट अशोक राज्य से बाहर यात्रा पर थे.
कहा जाता है कि रानी की यह कोशिश सफल नहीं हो सकी. बोधिवृक्ष पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ. कुछ वर्षों बाद उसी जड़ से एक नया पौधा निकल आया, जिसे बोधिवृक्ष की दूसरी पीढ़ी माना गया. यह नया वृक्ष करीब 800 वर्षों तक जीवित रहा.
दूसरी बार बंगाल के राजा शशांक ने किया मिटाने का प्रयास
बोधिवृक्ष को मिटाने का दूसरा प्रयास बंगाल के राजा शशांक ने किया. उन्होंने इसे जड़ से उखाड़ने की कोशिश की, लेकिन इसमें असफल रहे. कहा जाता है कि जब जड़ें नहीं निकलीं, तो उन्होंने पेड़ को कटवाकर उसकी जड़ों में आग लगवा दी. बावजूद इसके, जड़ें पूरी तरह नष्ट नहीं हुईं. कुछ वर्षों बाद इन्हीं से एक नया पौधा उगा, जिसे बोधिवृक्ष की तीसरी पीढ़ी माना गया. यह वृक्ष लगभग 1250 वर्षों तक अस्तित्व में रहा.
तीसरी बार प्राकृतिक आपदा से हुआ था नष्ट
साल 1876 में बोधिवृक्ष एक प्राकृतिक आपदा की चपेट में आकर नष्ट हो गया. इसके बाद 1880 में लार्ड कानिंघम ने श्रीलंका के अनुराधापुर से बोधिवृक्ष की एक शाखा मंगवाकर बोधगया में दोबारा लगवाई. यही शाखा आज के बोधिवृक्ष की चौथी पीढ़ी मानी जाती है, जो अब भी बोधगया में मौजूद है और लोगों की आस्था का केंद्र बनी हुई है.
श्रीलंका में मौजूद है बोधिवृक्ष की निशानी
बताया जाता है कि सम्राट अशोक ने अपने बेटे महेन्द्र और बेटी संघमित्रा को बोधिवृक्ष की एक टहनी देकर श्रीलंका भेजा था, ताकि वे वहां बौद्ध धर्म का प्रचार कर सकें.अनुराधापुरम में लगाया गया वह वृक्ष आज भी वहां मौजूद है और बौद्ध आस्था का प्रतीक बना हुआ है.
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