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Folk Band: मिथिला का ‘फोक बैंड’ रसनचौकी, इन पांच वाद्ययंत्रों पर कभी नहीं बजता शोक धुन

Folk Band: "हम तो अपने हालत पर उदास भी नहीं हो सकते, क्योंकि हमने शोक धुन बजाना सीखा ही नहीं है..." रसनचौकी के कलाकार कहते हैं कि अब इस पेशे में न पैसा है और न सम्मान. नई पीढ़ी को सौंपने के लिए हमारे पास केवल विरासत है. अभी चाहत, कभी मन्नत तो कभी परंपरा ही सही, कुछ दशक पहले तक रसनचौकी के बिना मिथिला में शायद ही कोई शुभ अवसर की कल्पना हो सकती है. पांच वाद्ययंत्रों का समूह रसनचौकी के लिए आंगन का एक कोना मानो आरक्षित ही रहता था. रसनचौकी का रस आज धीरे-धीरे खत्म हो रहा है. मुंडन का घर हो या शादी का मंडप आंगन का वो कोना आज सूना दिखाई देता है. डीजे की शोर में ढोल-पिपही की वो मधुर धुन गायब सी हो गयी है.

Folk Band: पटना. मिथिला की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत ‘रसनचौकी’ को भारत का पहला ‘फोक बैंड’ भी कहा जाता है. रसनचौकी दरअसल रौशन चौकी का अपभ्रंस है. इसका मतलब होता है ऐसी चौकी जो रोशन माहौल (मांगलिक अवसर) में बैठे. कहा जाता है कि रसनचौकी की परंपरा सीता के जन्म से शुरू हुई और सतत पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. आज भी मांगलिक और सामाजिक आयोजनों में इसे देखा सुना जा सकता है. मिथिला की विभिन्न जातियों में यह मान्यता रही है कि अनुष्ठानिक कार्य रसनचौकी वादन के बिना सम्पूर्ण नहीं हो सकता है. मिथिला की संस्कृति में रसनचौकी की परंपरा को आवाहन वाद्य या आवाहन संगीत के रूप में मान्यता प्राप्त है. हालांकि पांच वाद्ययंत्रों का समूह रसनचौकी का रस धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. शहर हो या गांव रसनचौकी की मंगलधुन अब पहले के मुकाबले कम ही सुनाई देती है.  अंग्रेजी बाजा (बैंड पार्टी) और डीजे की शोर में रसनचौकी का मंगल संगीत कहीं गुम होता जा रहा है. 

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रसनचौकी की मंगलधुन : मिथिला की संगीत धरोहर.

पांच वाद्ययंत्रों का समूह है रसनचौकी

  • पीपही
  • ढोल
  • तबली
  • खुरदक
  • कारा

मिथिला के लोकवाद्य रसनचौकी को वादन के प्राचीनतम लोक कला की श्रेणी में रखा जा सकता है. रसनचौकी में मुख्य रूप में पांच वाद्ययंत्रों पीपही, ढोल, तबली, खुरदक आ कारा का उपयोग होता है. पहले धुथूर भी इसमें शामिल था, लेकिन अब  इन पांच वाद्ययंत्रों के आर्केस्ट्रा को ही रसनचौकी कहा जाता है. इसमें दो वाद्ययंत्र फूंक कर बजाया जाता है, जबकि चार वाद्ययंत्रों में आवाज थाप आधारित है. धुथूर और पीपही जहां फूंक कर बजायी जाती है, वहीं तबली, डिग्गी या खुरदक और कारा को थाप मारकर बजाया जाता है. विदेश्वर राम कहते हैं कि धुथूर बजाने में सांस की बहुत जरुरत होती है. अब न तो वैसी हवा रही और न ही वैसा शरीर. नयी पीढ़ी इसे बचाने से कतराने लगे हैं. रसनचौकी में कारा की जगह झाल का उपयोग भी होने लगा है. पहले रसनचौकी में मुख्यतया छह कलाकारों की टीम होती थी, लेकिन अब रसनचौकी की टीम तीन लोगों की भी बनने लगी है. 

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धुथूर: अब इसे वाद्ययंत्र को रसनचौकी से लगभग हटा दिया गया है.

मिथिला का आवाहन संगीत “रसनचौकी”

रसनचौकी पर शोध करनेवाले सरिसब-पाही गांव के अमल झा कहते हैं, ” मिथिला प्राचीन काल से कला, साहित्य आ संस्कृति के केंद्र पोषक रहा है. रामायण में उल्लेखित है कि जब सीता धरती स अवतरित हुईं तो वातावरण में विशेष प्रकार का वाद्य यंत्र गुंजायमान हुआ. यह लोकवाद्यक समूह “रसनचौकी” ही है. सीता का जन्म से शुरू हुई इस परंपरा को मैथिली समाज आज भी आवाहन वाद्य वा आवाहन संगीत के रूप मान्यता दे रखा है. यही कारण है कि अधिकतर मांगलिक कार्यों में आज भी रसनचौकी की मौजूदगी देखी जा सकती है.” रसन चौकी के स्वर के संबंध में दिलेश्वर राम कहते हैं कि पहले हर मौके के लिए अलग अलग राग बचाने की परंपरा थी. हर मौके के लिए एक खास राग में बंदिशें उपलब्ध थी. बाद में मुख्य रूप से मिथिला की पारंपरिक आ अनुष्ठाणिक गीत बजाई जाने लगी. अब तो मैथिली लोकगीत भी बजा देते हैं. 

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पिपही: शहनाई की जननी

शहनाई की जननी रही है रसनचौकी की पिपही

भारतीय संगीत जगत में पुरातन वाद्ययंत्रों में से एक पीपही रसनचौकी का प्रमुख वाद्ययंत्र हैं. माना जाता है कि परिमार्जित रूप वर्तमान शहनाई है. पिपही और शहनाई की बनावट में कोई खास अंतर नहीं है. रसनचौकी पर अध्ययन करनेवाले तंत्रनाथ झा कहते हैं कि पिपही में तार के पत्ते की बीट लगायी जाती है, जिसके माध्यम में हवा अंदर जाती है. यही पिपही को बांसुरी से अलग करता है. इतना ही नहीं पीपही में चमड़े का उपयोग नहीं होता है, जबकि शहनाई में चमड़ा इस्तेमाल होता है. इस वाद्ययंत्र के वैज्ञानिक प्रभाव की चर्चा करते हुए रसनचौकी पर शोध करनेवाले सरिसब-पाही गांव के अमल झा कहते हैं कि रसनचौकी के वादन से उत्पन्न ध्वनी वातावरण में उपस्थित अनेकों जीवाणु व विषाणु को नष्ट करने में सक्षम होते हैं. हालांकि वो मानते हैं कि इस पर गंभीर शोध की आवश्यकता है. बिहार के बनैली राजघराने के कुमार गिरिजानंदन सिंह कहते हैं, हमारे यहाँ रसनचौकी शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता। नौबत ही कहा जाता है. हमारे ड्योढ़ी के सिंह दरवाज़े पर नौबतखाना है, जहाँ आज भी दुर्गा पूजा के अवसर पर दसो दिन सुबह-शाम यह बजाई जाती है. बनारस के वादकों का एक परिवार है, उसी के सदस्य 1725 ई से आज तक यहां बजाते रहे हैं.”

समाज चाहे तो बच सकती है परंपरा

रसनचौकी के कलाकार कभी शोक धुन नहीं बजाते, लेकिन उनके जीवन में इस कला को लेकर शोक बढ़ता जा है. वो कहते हैं कि समाज में अब इस कला की कोई कद्र नहीं है. न तो पहले जैसा सम्मान मिल रहा है और न ही कला का उचित दाम मिल रहा है. नयी पीढ़ी अब इस पेशे खुद को अलग कर रही है. मुनेश्वर राम कहते हैं, “रसनचौकी लोकवाद्य के संरक्षण व संवर्द्धन का दायित्व एक जाति विशेष के कंधे पर ही रहा हैं. इसकी उपेक्षा का एक कारण यह भी रहा कि दूसरे समाज के लोग इस कला से खुद को दूर रखे रहे. मधुबनी जिले के बिठ्ठो गांव के कामेश्वर राम कहते हैं,” समाज चाहेगा तो यह सब बच सकता है. अभी भी हम कलाकार लोग नाउम्मीद नहीं हैं. वो कहते हैं, ” वर्तमान में मधुबनी जिले के भटसिमरि गाम के महेंद्र राम, कमल राम, आदि इस पुरातन कला के सिद्ध कलाकार हैं और अगली पीढ़ी को वाद्ययंत्र बचाने का प्रशिक्षण दे रहे हैं.”

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न पैसा न सम्मान: परंपरा से दूर होती नयी पीढ़ी

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Ashish Jha
Ashish Jha
डिजिटल पत्रकारिता के क्षेत्र में 10 वर्षों का अनुभव. लगातार कुछ अलग और बेहतर करने के साथ हर दिन कुछ न कुछ सीखने की कोशिश. वर्तमान में पटना में कार्यरत. बिहार की सामाजिक-राजनीतिक नब्ज को टटोलने को प्रयासरत. देश-विदेश की घटनाओं और किस्से-कहानियों में विशेष रुचि. डिजिटल मीडिया के नए ट्रेंड्स, टूल्स और नैरेटिव स्टाइल्स को सीखने की चाहत.

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