World Theatre Day: पटना के रंगमंच का अपना तिलिस्म है. संसाधन कम हो या न हो रंगमंच से जुड़े कलाकार दर्शकों को प्रेक्षागृह तक लाने में जी-जान से लगाते रहते हैं. शुरुआत के दिनों से लेकर आजतक रंगमंच से जुड़े कलाकारों ने केवल रंगमंच को नयी दिशा दी, बल्कि रंगमंच के जरिये फिल्मी जगत में अपनी पहचान बनायी. रंगमंच से जुड़े कलाकार शहर के अंदर और शहर के बाहर रहकर भी दर्शकों को गुदगुदाते रहे हैं. पटना के रंगमंच की बात करें, तो पृथ्वीराज कपूर के साथ-साथ रामायण तिवारी, प्यारे मोहन सहाय, विनीत कुमार, अखिलेंद्र मिश्रा, पंकज त्रिपाठी आदि कलाकारों ने अपने अभिनय से रंगमंच के साथ फिल्मी दुनिया में अपना नाम कमाया. पटना रंगमंच से जुड़े पुराने कलाकार अपने निभाये किरदार कोई खदेरन की माई, तो कोई बटुक भाई तो फाटक बाबा, तो कोई सम्राट और पहलवान चाचा के नाम से काफी मशहूर हुए.
1920 में हुई थी पटना रंगमंच की शुरुआत
पटना में रंगमंच की शुरुआत 1920 के दशक में हुई थी, जब शहर के कुछ गिने-चुने कलाकार बांग्ला और अंग्रेजी नाटकों का मंचन किया करते थे. उस समय ना तो कोई प्रेक्षागृह था और ना ही कोई बड़ी जगह, ज्यादातर नाटकों का मंचन खुले मैदानों में किया जाता था. इन शुरुआती दिनों में नाटक के प्रति शहर के लोगों का उत्साह बहुत ही गहरा था, और यह उत्साह पुराने लोगों में आज भी बरकरार है.
1923 में आये थे कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर
पटना रंगमंच की एक और ऐतिहासिक घटना 1923 में घटी, जब कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर खुद रंगमंच के लिए पटना आए थे. गांधी मैदान के पास स्थित एलफिस्टन सिनेमा हॉल में उनके नाटक का मंचन किया गया था. यह शहर के रंगमंच इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, क्योंकि इस मंचन ने न केवल रंगमंच के महत्व को बढ़ाया, बल्कि इसे एक नए आयाम में पहुंचाया.
पृथ्वीराज कपूर का रहा है अहम योगदान
पटना के बाकरगंज में रूपक सिनेमा हॉल के पीछे ‘कला मंच’ था. पटना में पुराने समय में नाटकों का मंचन यहीं होता था. साल 1960 के आसपास मशहूर फिल्म अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने भी यहां नाटक का मंचन किया था. उनके द्वारा किये गये प्रदर्शन ने न केवल पटना के रंगमंच को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई, बल्कि उनके अभिनय और मंचन की गुणवत्ता ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. कपूर ने खुद कहा था कि जहां इतने सारे दर्शक नाटक देखने आते हैं, वहां गांव-गांव में नाटक आयोजित किया जाना चाहिए. इस तरह, उन्होंने पटना के रंगमंच की महिमा को और बढ़ाया. कला मंच के नाम से यह जगह आज भी प्रसिद्ध है.
1961 में हुई थी बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना
पटना के रंगमंच को मजबूती प्रदान करने में बिहार आर्ट थियेटर की अहम भूमिका रही है. वर्ष में तीन सौ से अधिक नाटकों की प्रस्तुति देने वाला पटना के रंगमंच की स्थापना वरिष्ठ रंगकर्मी अनिल कुमार मुखर्जी ने 25 जून 1961 को रवींद्र शताब्दी वर्ष के समय की थी. उन्होंने ही पटना के रंगमंच को एक नयी दिशा दी. आज भी इसका नाम बिहार के रंगमंच के सबसे प्रमुख संस्थानों में लिया जाता है. बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना से रंगमंच की प्रशिक्षण प्रणाली को भी नयी ऊर्जा मिली. 1970 में ‘बिहार नाट्य-प्रशिक्षणालय’ की स्थापना ने न केवल रंगकर्मियों को पेशेवर प्रशिक्षण दिया, बल्कि इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता भी दिलायी.
रंगमंच पर महिला रंगकर्मियों की रही खास भूमिका
पटना के रंगमंच पर पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. आज की तारीख में, महिला रंगकर्मी न केवल अभिनय और निर्देशन में योगदान दे रही हैं, बल्कि रंगमंच की पूरी व्यवस्था को संभालने में भी अहम भूमिका निभा रही हैं. अर्चना सोनी, समता राय, उज्ज्वला गांगुली, नुपुर चक्रवर्ती, और शारदा सिंह जैसी महिला रंगकर्मी न केवल पटना, बल्कि पूरे देश के रंगमंच को समृद्ध कर रही हैं.
कई कलाकार फिल्मी दुनिया में बनायी पहचान
पटना का रंगमंच सिर्फ थिएटर के क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में भी अपनी छाप छोड़ चुका है. विनीत कुमार, अखिलेंद्र मिश्रा, पंकज त्रिपाठी जैसे उम्दा कलाकारों ने पटना के रंगमंच से ही अपने करियर की शुरुआत की और आज ये कलाकार हिंदी सिनेमा के प्रमुख चेहरे बन चुके हैं. उनका अभिनय, जो पहले रंगमंच पर मंचित हुआ, अब फिल्मी दुनिया में भी अपनी अलग पहचान बना चुका है.
नाटकों की प्रस्तुति का सिलसिला जारी है
आज पटना में रंगमंच का जो स्वरूप है, वह पूरी तरह से विकसित हो चुका है. कालिदास रंगालय, प्रेमचंद रंगशाला, भारतीय नृत्य कला मंदिर, और आइएमए हॉल जैसे स्थल आज भी नाटकों की प्रस्तुति के लिए प्रमुख केंद्र हैं. हालांकि, सरकारी अनुदान पर निर्भर रहते हुए, रंगमंच को अभी भी वह लोकप्रियता और मान्यता नहीं मिल पाई है, जिसकी यह पूरी तरह से हकदार है. बावजूद इसके इप्टा , लोकपंच, और प्रांगण जैसी संस्थाओं द्वारा नाटकों की प्रस्तुति का सिलसिला निरंतर जारी है. साल 1926 के आसपास अंग्रेजी व बांग्ला भाषा में नाटकों का मंचन हुआ करता था.
पटना सिटी के नाट्य आंदोलन का पड़ा प्रभाव
पटना में रंगमंडली की स्थापना पंडित केशवराम भट्ट ने वर्ष 1876 में पटना नाटक मंडली की स्थापना की थी. उस दौरान उन्होंने शमशाद सौसन नामक नाटक लिखा, जिसमें उन्होंने अंग्रेज मजिस्ट्रेट की अतृप्त कामुकता, बेईमानी और अनाचार को दिखाया था. रंगकर्मी अशोक प्रियदर्शी की मानें तो पंडित गोवर्धन शुक्ल के प्रयास से 1905 में पटना सिटी के हाजीगंज मुहल्ले में रामलीला नाटक मंडली की स्थापना की गयी थी. पटना सिटी के नाट्य आंदोलन का प्रभाव बिहार के दूसरे शहरों पर खूब पड़ा.
रंगमंच से जुड़े वरिष्ठ कलाकारों ने कहा-
- रंगमंच की पुरानी परंपराओं की सहेजने की चुनौती – नवाब आलम, वरिष्ठ रंगकर्मी
80 के दशक में रंगमंच का एक अलग ही आकर्षण था, जो आजकल कहीं खो गया सा लगता है. हिंदी नाटकों में जो गहराई और प्रयोग होते थे, उनका आज के नाटकों में अभाव दिखाई देता है. रंगमंच की शुरुआत मैंने शौकिया स्तर पर की थी, जब मैं महज मैट्रिक का छात्र था. खगौल का रंगमंच उस समय अत्यंत प्रसिद्ध था, और वहां के कई कलाकारों के नाटकों ने मुझे अभिनय की कला में पारंगत किया. आज के रंगमंच में वो बात नहीं है, जो पहले हुआ करती थी. हमारे लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि कैसे हम रंगमंच की पुरानी परंपरा और गौरव को संजोए रखें. खगौल के रंगमंच को समृद्ध करने में बंगाली समुदाय का बड़ा योगदान रहा है, जिनके सांस्कृतिक आयोजनों ने पटना के रंगमंच को नया आयाम दिया.
- आजकल नाटक की अवधि छोटी हो गयी है – आजाद शक्ति, वरिष्ठ रंगकर्मी
मेरे रंगमंच में कदम रखने का सफर सातवीं कक्षा से शुरू हुआ था, और 1978 से मैंने रंगमंच को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया. तब और आज के रंगमंच में एक बड़ा अंतर है. उस दौर में नाटक तीन से साढ़े तीन घंटे लंबा होता था, जो दर्शकों को मंच से पूरी तरह बांधकर रखता था. थिएटर प्रेमी नाटक का इंतजार करते थे और एक खास उत्साह होता था. आजकल नाटक की अवधि छोटी हो गयी है और उसमें वो नयापन नहीं दिखता. हमने आइएमए हॉल, रविंद्र भवन और कई स्कूलों और कॉलेजों में नाटक किये हैं, लेकिन 80-85 के दशक में पटना आर्ट कॉलेज में तीन महीने का शॉर्ट टर्म कोर्स करने का मौका मिला. रंगमंच की असली भाषा यही है, जो दर्शकों को खुद से जोड़ लेती है. मुझे गर्व है कि मैंने बिहार में रहकर ही रंगमंच से जुड़ने का निर्णय लिया, और आज भी उसी क्षेत्र में अपनी सेवा दे रहा हूं.
- रंगमंच का सबसे बड़ा आकर्षण उसकी भाषा है – ए सनत, रंगकर्मी
“रंगमंच में न सिर्फ अभिनय, बल्कि नाट्य निर्देशन भी मेरे लिए हमेशा एक प्रेरणा का स्रोत रहा है. पिछले 35 सालों से रंगकर्म से जुड़े होने के नाते, मैं यह मानता हूं कि रंगमंच की अपनी एक खास भाषा होती है, जो दर्शकों को बिना बोले समझाती है. पटना के बाकरगंज के पास बने सिनेमा हॉल में नाटक हुआ करते थे, और सतीश आनंद के नेतृत्व में रंगमंच ने नई ऊंचाइयां छुईं. 60 के दशक में भिखारी ठाकुर जैसे महान कलाकारों ने लोक नाट्य के माध्यम से रंगमंच को समृद्ध किया. हालांकि, जब आर्थिक सहायता नहीं मिलती तो कला का अस्तित्व संकट में पड़ जाता है, और कई पुरानी संस्थाएं विलुप्त हो जाती हैं. रंगमंच का सबसे बड़ा आकर्षण उसकी भाषा है, जो न केवल शब्दों से, बल्कि हाव-भाव, चेहरे के एक्सप्रेशन्स और शरीर की भाषा से भी संवाद करती है.
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