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महाश्वेता देवी के साहित्य के केंद्र में आदिवासी और जनजाति के जीवन की कथा : प्रेमप्रकाश

बांग्ला एवं हिंदी की लोकप्रिय लेखिका महाश्वेता देवी की जन्म शताब्दी वर्ष की पूर्व संध्या पर परिचर्चा हुई.

मेदिनीनगर. सांस्कृतिक पाठशाला की 62वीं कड़ी में बांग्ला एवं हिंदी की लोकप्रिय लेखिका महाश्वेता देवी की जन्म शताब्दी वर्ष की पूर्व संध्या पर परिचर्चा हुई. शहर के रेड़मा स्थित इप्टा कार्यालय में आयोजित परिचर्चा में वक्ताओं ने महाश्वेता देवी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा की. प्रेम प्रकाश ने विषय प्रवेश कराते हुए कहा कि महाश्वेता देवी का जीवन बेहतर दुनिया बनाने वाले लोगों और उनके अधिकारों को समर्पित था. उनका अधिकांश साहित्य संघर्ष और दर्द की कथा कहता है. उनके द्वारा लिखित उपन्यास जंगल के दावेदार की चर्चा करते हुए कहा कि यह बिरसा मुंडा के संघर्ष को दर्शाता है. उन्होंने बताया कि इस उपन्यास का नाट्य रूपांतरण इप्टा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य उपेंद्र कुमार मिश्रा ने किया था. उनकी कई कहानियों में पलामू के पात्र शामिल हैं. संपूर्णता में देखें तो उनके साहित्य के केंद्र में आदिवासी और जनजाति के जीवन की कथा देखने को मिलती है. कई रचनाएं बहुत ही मार्मिक और कारुणिक हैं. परिचर्चा में वक्ताओं ने कहा कि महाश्वेता देवी की रचना सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में चर्चित है. उन्होंने जिस प्रकार से रचनाधर्मिता को निभाया है, इसके लिए उन्हें कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया. महाश्वेता देवी का संबंध झारखंड के आदिवासी क्षेत्र संथाल परगना, पलामू, बंगाल का वीरभूम, बांकुड़ा, उड़ीसा का कालाहांडी, छत्तीसगढ़ का बस्तर, दंतेवाड़ा के संघर्ष से रहा है. वहां आदिवासियों, महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा था. महाश्वेता देवी का साहित्य आज भी प्रासंगिक है. उनका साहित्य आज भी साहित्य कर्मियों को नयी दिशा प्रदान करता है. उनका व्यक्तित्व और उनकी शैली यह प्रतिबिंबित करती है कि एक साहित्यकार का संबंध समाज में चल रहे सकारात्मक आंदोलन से होना ही चाहिए. साहित्य राजनीति से निरपेक्ष नहीं हो सकता. परिचर्चा की अध्यक्षता ज्ञान विज्ञान समिति के प्रांतीय अध्यक्ष शिवशंकर प्रसाद ने की. मौके पर प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव नुदरत नवाज, कुलदीप, गोविंद प्रसाद, घनश्याम, ललन प्रजापति, संजीव कुमार संजू, अजीत, भोला, चंद्रकांति कुमारी सहित मौजूद थे.

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