मुंगेर. पंडित नीलमणि दीक्षित ने गोस्वामी तुलसीदास की चौपाइयों को उद्धरण करते हुए कहा कि संतों का हृदय नवनीत से भी कोमल होता है. नवनीत तो निज ताप से पिघलता है, जबकि संत हृदय तो दूसरों के ताप और कष्ट देखते ही करूणा से द्रवित हो जाता है. वे बिहार योग विद्यालय के संन्यासपीठ पादुका दर्शन में चल रहे रामकथा के चौथे दिन प्रवचन करते हुए कही. मौके पर योग विद्यालय के परमाचार्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती मुख्य रूप से आसन पर विरजमान थे. पंडित दीक्षित ने जयंत-नारद के प्रसंग से कथा प्रारंभ करते हुए नारद मुनि जैसे संतों के विलक्षण स्वभाव को उजागर किया. उन्होंने कहा कि जयंत के कष्ट से द्रवित होकर नारद मुनि उसे सलाह देते हैं कि सींक रूपी बाण के ताप से बचने के लिए उसे उन्हीें भगवान राम की शरण में जाना होगा. जिन्होंने उसके अहंकार के शमन के लिए वह बाण छोड़ा था. जब जयंत लज्जित होकर सीता-राम के सम्मुख उपस्थित हुआ तो भावावेश से मुर्छित हो गया. पक्षी जब मुर्छित होता है तो पूंछ और पैर सामने और सिर पीछे की ओर होता है. जयंत की ऐसी दशा देखकर करूणामयी माता-सीता, जिसके प्रति जयंत ने अपराध किया था ने जयंत के सिर को उठाकर रामजी की ओर कर दिया. इसके बाद प्रसंग आता है कि भगवान राम ने जयंत को उसके अपराध के लिए क्षमा तो कर दिया, परंतु एक नेत्र हर लिया. पंडित दीक्षित ने इस प्रचलित व्याख्या को गलत ठहराते हुए समझाया कि करूणानिधान भगवान शरणागत के नेत्र को कैसे नष्ट कर सकते हैं. वास्तव में भगवान ने एक दृष्टि होने का आशीर्वाद दिया, जहां सभी भेद समाप्त हो जाते है और व्यक्ति समदर्शी हो जाता है. उन्होंने वनवास के दौरान भगवान राम के अत्रि-अनुसूइया आश्रम में प्रवेश और उनके मिलन के प्रसंग को बतलाया. फिर गिद्ध जटायु और भगवान राम के संबंध के गूढ़ पक्ष को उजागर करते हुए उन्होंने वह पौराणिक कथा सुनाया जिसमें गृद्धराज जटायु महाराज दशरथ के प्राणों की रक्षा करते है और बदले में दशरथ अपना पहला पुत्र उन्हें दान देने की प्रतिज्ञा करते है. राम जन्मोत्सव पर दशरथ ने जटायु को बुलाकर उन्हें राम को गोद दे दिया. जटायु ने राम को गोद तो ले लिया, परंतु उनके पालन-पोषण के लिए दशरथ को लौटा दिया. इसलिए दशरथ का अंतिम संस्कार भरत ने किया और जटायु का स्वयं भगवान राम ने किया. मौके पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु नर-नारी मौजूद थे.
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